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काँटेदार झाड़ी पर बर्फ़

kantedar jhaDi par barf

अनुवाद : वेद राही

रहमान राही

अन्य

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रहमान राही

काँटेदार झाड़ी पर बर्फ़

रहमान राही

अचानक करवट बदलकर मैं उठ बैठा

अँधेरे में, आधी रात को

जिगर में ऐंठन, रोम-रोम बौखलाया हुआ।

खिड़की से दुनिया को एक नज़र देखा,

बादल के टुकड़े खिंचे चले जा रहे थे

और मेंढ़कों की टर्राने वाली बोली का प्राणांत हो चुका है

मेरे पड़ोस के मकान की उत्तर दिशा से निकल आई

किसी परिंदे की फुरफुराती बेआवाज़-छाया जैसे।

मुझे अपना बचपन याद आया

ग्वालिन कह रही थी :

शाम ढले मैंने देखे आग की लपटों जैसे दो कबूतर

या शायद दो दहकते आग्नेय मूसल

और फिर पागल शोर सुनाई दिया

“मनुष्य-मंडी जल रही है!..मनुष्य-मंडी जल रही है!”

मैंने ध्यान से आँगन में देखा

सब सहमे हुए पेड़ एक-दूसरे से लिपट गए थे

सिवाय एक के

जो मस्जिद के रोशन बल्ब के नीचे

सैंकड़ों हाथ आकाश की ओर उठाए

पथरा गया था।

मैं एक बार फिर उछलकर गिरा

मैट्रेस के नीचे बिछी चटाई की रस्सियाँ

पहल में चुभ गई थीं

अपनी पत्नी को देखा, सोई पड़ी थी

काँटेदार झाड़ी पर बर्फ़।

स्रोत :
  • पुस्तक : रहमान राही की प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 38)
  • संपादक : गौरीशंकर रैणा
  • रचनाकार : रहमान राही
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 2009

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