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करमागढ़ शैलाश्रय

karmagaDh shailashray

प्रभात त्रिपाठी

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प्रभात त्रिपाठी

करमागढ़ शैलाश्रय

प्रभात त्रिपाठी

और अधिकप्रभात त्रिपाठी

    एक दुर्गम चढ़ाई की पैडगरी पर

    जब हम भूल रहे थे अपना दैनिक समय

    तब थोड़ा भय हममें था

    उसी डर में

    उम्र की हँफनी से लस्त

    युवा हाथों की ओर बढ़ाते अपना हाथ

    हम थाहते थे

    अपनी जिजीविषा की खाई की गहराई

    और तीसरे पहर के सूर्य का आशीष

    ऊपर उठाता था हमारे पत्थर होते पाँव

    अपने स्वभाव के समय में

    पत्थरों पर हज़ारों साल पहले लिखी इबारत को

    वर्णमाला से बाहर की दुनिया में देखकर

    हम अपने शहरी विस्मय में उचारते थे

    चुन-चुनकर अपनी अनात्मकथा के शब्द

    और नीचे पत्थरों ढोकों के बीच बहता पानी

    हमें पुकारता था

    पर जब साथी मशग़ूल हो गए

    पिकनिक की तैय्यारी और ताश के खेल में

    तब मैंने जाना होने का निचाट अकेलापन

    इस तिलस्मी दरपन में

    घुटनों के नीचे हिलता हुआ

    एक हरा पत्ता है

    जो बता रहा है

    होने का अर्थ अगर हवा हो

    तो हिलते रहना है

    और अगर हो

    तो चुपचाप ताकना है

    जंगल में घिरती रात के विस्तार में

    अपनी दृष्टि की जगह

    या फिर नींद के पहले का वह समय

    जहाँ जंगल और शहर और घर को भूलकर

    आप बेबस करते हैं इंतज़ार

    एक आख़िरी चढ़ाई का

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रभात त्रिपाठी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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