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कारण में मुँह जितना

karan mein munh jitna

अभिजीत

अन्य

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अभिजीत

कारण में मुँह जितना

अभिजीत

और अधिकअभिजीत

    लिखना

    प्रेम करने में दर्ज हो चुका था

    जैसे बैठ जाना आँख मूँद लेने में होता है

    मैं बैठा हुआ था

    और लिख रहा था हाथों से बहुत कम

    बल्कि हाथों को मूँद कर

    तुम्हारे गहरे नीले आसमान में खुलना

    जैसे तारों को मूँद कर अँधेरा खुलता है

    यह आश्चर्य नहीं है

    आलिंगन है

    मुझे तुम्हारे बालों में

    अपना डूबता चेहरा नहीं

    उगती हुई उँगलियाँ देखनी हैं

    तुम्हारे पैरों में

    महकता है

    मेरे देस का इतिहास

    मैं उन्हें किताब की तरह पकड़े हूँ

    बैठे हुए पढ़ रहा हूँ इन्हें

    यही शब्द

    जिन्हें देखा कहीं नहीं

    और वर्तनी भी ग़लत है

    ऊष्मा मूँद चुके उल्कापिंड की तरह

    किसी पहाड़ से टकराऊँगा

    जल रहे टुकड़े सालों साल तक

    इन शब्दों की तरह

    ठंडे होने को पड़े होंगे

    इन्हें बरसों तक देखा नहीं गया होगा

    ये क्यों आए थे यहाँ

    इन्हें अब आगे कहाँ जाना है

    कोई ढूँढ़ेगा नहीं

    इनके होने के कई कारण होंगे

    मगर सारे शाब्दिक

    तुम जो यह कविता पढ़ते हुए

    यहाँ तक आई हो

    ऊष्मा हो

    और मैं शाब्दिक

    स्रोत :
    • रचनाकार : अभिजीत
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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