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काँय-काँय

kanya kanya

अनुवाद : सतीश ‘विमल’

दीनानाथ ‘नादिम’

अन्य

अन्य

दीनानाथ ‘नादिम’

काँय-काँय

दीनानाथ ‘नादिम’

और अधिकदीनानाथ ‘नादिम’

    काठ का एक टुकड़ा

    सफ़ेदे पर का कौआ ले उड़ा

    सफ़ेदे पर जा बैठा

    और पेड़ की

    सबसे ऊँची फुनगी पर उसको

    बड़ा सँभाल कर रखा

    इतने में चली तेज़ हवा

    और काठ के उस टुकड़े को

    कूड़े के ढेर पर गिरा गई

    उधर तूत पर बैठे कौए ने काठ को तुरंत खोज लिया

    अँधेरे में ही उसे फिर ऊपर ले गया

    और उसे खोखर में छुपा के रख लिया

    वर्षा की बौछार हुई

    टुकड़ा फिर नीचे गिर गया

    चिनार से एक कौआ आया और उसे

    बीच रास्ते से उठा लिया

    और चुपचाप पत्तों को थमा दिया

    अब देखना है कि कब तलक उसे

    हवा टिकने देगी वहाँ

    लकड़ी का टुकड़ा कहीं ठहर पा रहा है

    ही कहीं कोई नीड़ बन पा रहा है

    प्रातः से हम केवल सुन रहे हैं :

    काँय-काँय काँय-काँय।

    (मूल : टाव टाव)

    स्रोत :
    • पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 45)
    • संपादक : रतनलाल शांत
    • रचनाकार : दीनानाथ ‘नादिम’
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2005

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