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कंडक्टर

kanDaktar

इब्बार रब्बी

अन्य

अन्य

इब्बार रब्बी

कंडक्टर

इब्बार रब्बी

और अधिकइब्बार रब्बी

    जाड़े की है रात

    हवा दिसंबर की

    घना कोहरा

    सुनसान सड़क

    फ़ुटपाथ पर छटपटाती पत्तियाँ सूखी

    चली जा रही है बस जैसे रोती हुई

    कंडक्टर बैठा है चुपचाप पीछे

    कोई नहीं मुसाफ़िर

    सुनसान घर कंडक्टर का

    गंदी बस्ती में

    सुनसान है उसका प्रेम

    सुनसान उसकी रोटी

    सुनसान उसकी पत्नी

    सुनसान उसका बच्चा

    सुनसान है उसका अतीत

    चुपचाप बैठा वह पीछे

    जैसे कविता की किताब में

    निरीह विराम-चिह्न

    पहिए के नीचे आए पिल्ले-सा

    पड़ा है वह इस दुनिया के गड्ढे में

    टिकट फाड़ता है जैसे

    सीना फाड़ रहा हो

    मुर्दनी है पूरी बस में

    कोहरे-भरे शीत में

    ठिठुरता भी नहीं वह

    जाड़े की रात

    अकेला बैठा है।

    जैसे जमा हुआ पानी

    कीचड़ पर तैर गया हो

    कंडक्टर भाई! उठो!

    अकेले तुम नहीं हो

    कम से कम ड्राइवर को तो

    अपना समझो

    व्यस्त हैं जिसके हाथ

    ख़ाली नहीं है जिसका मन

    अकेले नहीं रहागे तुम

    इस आँधी-पानी में

    तुम सारे दिन चलते रहे

    पर गए कहीं नहीं

    तुम जीवन-भर दौड़े

    पर रहे वहीं के वहीं

    हम क्या करें

    कि तुम मुस्कुराओ

    क्या करें कि तुम्हारी

    बच्ची स्कूल जाए

    क्या करें! क्या करें हम!

    कि तुम्हारी पत्नी

    खीर पकाए

    क्या करें हम

    कि तुम लड़ो नहीं घर जाकर

    हम क्या करें

    कि ऑफ़ के दिन

    तुम पिक्चर जाओ

    परिवार के साथ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 84)
    • रचनाकार : इब्बार रब्बी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2012

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