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कनॉट प्लेस

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जगदीश चतुर्वेदी

अन्य

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जगदीश चतुर्वेदी

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जगदीश चतुर्वेदी

उदास मीनारों पर ढलती हुई शाम

कहवा घरों और चाय घरों में जाती हुई भीड़

पार्कों में चहलक़दमी करते कुछ स्वस्थ जोड़े

नियोन लाइट के अक्षरों में चमकते बोर्ड

—सिनेमाघरों के इश्तहार!

कुछ नहीं है तमाम घूमते हुए लोगों में

केवल धुंध भरी आँखें और ज़र्दी भरे चेहरे

मोटरों की गर्द में बच-बचकर निकलती औरतें

और, किसी प्रेमी की तलाश में घूमती लड़कियाँ

—कुछ जवान सोसायटी गर्ल्स!

रोज़ के एकरस जीवन से ऊबा महानगर

वही बसें, वही ट्रामें, स्कूटर और रिक्शे

कितना याद आता है छोटा-सा गाँव

महानगर में अकेलापन गहरी ऊब दे जाता है

—मृत्यु जैसी ख़ामोशी!

यहाँ कोई किसी का दोस्त नहीं, परिचित नहीं

यहाँ तो सभी चेहरे बिखरे हैं स्वार्थों में

लोग उड़ाते हैं एक दूसरे का मज़ाक़

बौद्धिकता की सीमाएँ ज़्यादा बोलने में हैं।

—हर आदमी शैतान नज़र आता है!

स्रोत :
  • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 76)
  • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 1967

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