ज्याँ क्रिस्तोफ़

jyan kristof

मलयज

मलयज

ज्याँ क्रिस्तोफ़

मलयज

अँधेरे जीने और धुंध भरे कमरे

एक तरफ़ उठा कर रख दिए मैंने

तब खुला मैदान था,

मुफ़्त बेहिसाब धूप की टॉफ़ियाँ चूसते

ज्याँ क्रिस्तोफ़ से मिला—

तगड़े, इलाहाबादी अमरूद जैसे चेहरे को

नज़दीक से देखा—

झट उठी हुई एक निर्भय उँगली के पीछे

तमतमाता आकाश गया

और आकाश को थामे उतर आए

ख़ुसरो बाग़ के वे ऊँचे मक़बरे—

विद्रोह का इतिहास!

मध्यकालीन वह गहरी रूमानी निष्ठा

छनी ख़ुशबू-सी मन में तैर गई।

—शुक्रिया ज्याँ क्रिस्तोफ़! तुम्हारा तगड़ा ख़ुशबूदार चेहरा

सुलभ है मुझे इस पल।

(दूर है... दूर है

पर कटे ज़ीनों और कठैलों कमरों में

सिजदा करना वो घुटनों के बल!)

...नरम पत्तियाँ तड़कीं किरनों के भार से,

ज्याँ क्रिस्तोफ़ की मुट्ठी में

मेरा छोटा-सा हाथ दबा-विनम्र, कृतज्ञ!

और उसने कहा : 'जियो'। बस।

मैंने कहा यहाँ की गंगा उथली है

उबली हुई निःसत्व दालें, अनाज...

सीने में भुरभुरी रेत, कोफ़्त...

और आस-पास दड़बे

दड़बों में वही कुबड़े जीने और ठिगने कमरे...

मैं कमज़ोर हूँ

देह से,

मन विद्रोह करके नहीं

ऊब से ऊब कर ही बाहर आता है कभी

मुफ़्त की टॉफ़ियाँ चूसने

यार, तुम क़िस्मतवर हो

तगड़े हो

लड़ सकते हो, जीने का मतलब

लड़ना ही है न?

उस तगड़े ख़ुशबूदार चेहरे पर

प्यारी मुस्कान की हल्की-फुल्की चित्तियाँ पड़ीं...

साँस रोके-से पत्ते हिले...

हाथ में हाथ

ज्यों आकाश में आकाश लिए

समय खड़ा हो गया...

अपने प्रश्न के वृत्त में आहत घिरा

जो फिर फिर लौट जाऊँगा बूढ़े ज़ीनों और बूचे कमरों में

अपने बड़े भाई से बड़ा हो गया :

मैंने कहा जाओ, कभी-कभी आना

यह परिवेश है सिर्फ़ मेरा,

मेरे हथियार कुछ दूसरे हैं,...

'में तुम्हारी वसीयत का भागी नहीं

क्योंकि तुम ज़िंदा हो :

धूप

पत्ती की कोमल लचक

इतिहास की रूमानी निष्ठा

ख़ुशबू...

हाँ, कभी-कभी आना

क्योंकि अभी उठाकर फिर उसी जगह रख देने हैं मुझे

वे भूखे ज़ीने और प्यासे कमरे

मैदान समेट

मैं लौट जाऊँगा

पर कृतज्ञ हूँ तुम्हारा मैं—

बड़े भाई आना ज़रूर!

स्रोत :
  • पुस्तक : ज़ख़्म पर धूल (पृष्ठ 10)
  • रचनाकार : मलयज
  • प्रकाशन : रचना प्रकाशन
  • संस्करण : 1971

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