जीवन-राग

jiwan rag

संतोष अर्श

संतोष अर्श

जीवन-राग

संतोष अर्श

मिली है दृष्टि कुछ देखो!

ज़रा देखो तो यह धरती,

गगन की नीलिमा, तारों-जड़ित यह रात्रि का आकाश

ये पर्वत, नदी, झरने, वृहत सागर

ये वन नदियाँ, सरोवर, वृक्ष, सुंदर घास के मैदान

झीलें-ताल-सर-अनुपम

और फूलों की ये सुंदर घाटियाँ—देखो ठहरकर

एक आँख है ब्रह्मांड यह

और आँख की पुतली है यह पृथ्वी मनोहर।

मिली है दृष्टि तो देखो!

सुनो तो कुछ!!

तनिक धरती पे रख कर कान

किसने छेड़ रक्खी है विरह की तान

गाता क्या है चरवाहा,

टिकाए स्कंध पर लाठी,

मवेशी चरते-चरते कोई मद्धिम लय बनाते हैं।

निराती औरतें खेतों में क्या गाती हैं, सुन पाओ तो सुन लो,

घास की गठरी रखे सिर पर, पसीने से हुई हैं तर,

ये जो घसियारनें, जब लौटती हैं घर, तो आपस में,

कहा करती हैं क्या? मज़दूर जो,

लौटा है अपने काम से संझा को

साइकिल भाँजता है तेज़, गाता क्या है, सुन लोगे!

तो गाओगे, सुनाओगे सदा तुम प्रेम-श्रम का गीत।

सुनो तो कुछ!

मिला है मन तो कुछ सोचो!!

ये सोचो किसलिए हो तुम

भला वो कौन है, करता है जो पोषण तुम्हारा

और करवाता है अपना रात-दिन शोषण

ज़रा सोचो तो अपने स्वत्व से अस्तित्व से निकलो

ये देखो कौन लीले जा रहा है वायु, जल, मिट्टी

पढ़ो चिट्ठी, लिखी दिखती है जो उन अनगिनत बच्चों के माथे,

औरतों की शक्ल पर अक्सर,

जो गंदी झुग्गियों से कर रहे प्रस्थान

नगरों के वे गंदे स्थान, जहाँ पर ढूँढ़ते हैं वे,

महज़ इक जून का खाना

निगलता जा रहा है कौन उनके हिस्से का दाना?

ज़रा सोचो कि सरहद की नदी को पार करने में,

क्यों डूबी जा रही हैं स्त्रियाँ और उनके वो बच्चे,

जिन्हें मालूम तक होता नहीं शरणार्थी क्या है?

ज़रा सोचो कि इतना सोचता है क्यों कोई शाइर

जो कहता है कि अक्सर सोचता हूँ मैं,

कि इतना सोचता क्यूँ हूँ?

ज़रा सोचो!! कहा करता था कोई दार्शनिक,

मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ।

ज़रा देखो, सुनो, सोचो :

मिली है दृष्टि कुछ देखो

नहीं कुछ देखने को हो

तो थोड़े स्वप्न ही देखो

ज़रा देखो सुनो सोचो!

ये दुनिया एक सुंदर स्वप्न ही तो है।

स्रोत :
  • रचनाकार : संतोष अर्श
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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