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जीवन-धारा

jiwan dhara

भारतभूषण अग्रवाल

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    सघन बर्फ़ की कड़ी पर्त-सी

    एक-एक कर अमित रूढ़ियाँ

    सदियों से जमती जाती हैं

    तह पर तह

    मानव-जीवन पर।

    तह पर तह—

    ये आज ठोस दीवार बनीं

    हैं रोक रही जीवन की गति

    मन की उन्नति।

    अवरुद्ध आज जीवन-धारा—

    युग-युग से प्रचलित भय-निर्मित

    इन अमित रूढ़ियों की कारा ने

    बाँध लिया मानव का मन,

    जग का जीवन।

    आगे बढ़ने में विफल, व्यर्थ

    असमर्थ

    आज जग-जीवन की सरिता का जल

    हो कर बेकल

    है फोड़-फोड़ निकला बाहर

    दोनों कूलों के इधर-उधर

    रसमय वसुधा के अंचल को

    कर के दलदल।

    अवरुद्ध आज जीवन-प्रवाह।

    जड़ता की जंज़ीरों में जकड़ा भीत हृदय

    हिम-शीत मृत्यु के क्षुण्ण-स्पर्श से

    आज बना निर्जीव,

    उस में शक्ति कि कर भी ले वह कुछ चीत्कार-आह!

    सब ओर आज गतिहीन शांति, निष्प्राण मौन,

    अस्वस्थ धरा, अवरुद्ध वायु, निस्तेज गगन।

    गँदला, अशुद्ध जग का जीवन।

    जग की रग-रग में जमा हुआ हेमंत-शीत,

    पतझार-पीत!

    पर भय क्या है!—अब देर नहीं

    हम अग्नि-शिखा प्रज्वलित करेंगे।

    जिस के सम्मुख एक बार ही

    गल-गल पिघल जाएँगे सारे हिम के प्रस्तर।

    एक बार फिर

    जीवन पाएगा अपनी उन्मुक्त धार, निर्बंध प्रगति

    टूटेंगे गति के पथ में आए रूढ़िग्रस्त मानव के मन के भाव-बंध

    फिर से समस्त जग में छाएगा नव-प्रकाश,

    नव-नवोल्लास, नव-गीत-छंद।

    फिर एक बार,

    हिम की कारों को तोड़-फोड़।

    अक्षय, प्रशस्त, जीवन-धारा

    वसुधा की चौड़ी छाती पर

    सत्त्वर,

    अमंद,

    बह पाएगी मग सरसाती

    कल-कल गाती।

    फिर भय क्या है!—अब देर नहीं।

    हम लाते हैं वह वहि—तेज

    जिसके स्फुलिंग की ज्योति-बिंदु से

    मिट जाएगा हेमंत शीत

    मिट जाएगी इस कड़वी जड़ता की सड़ाँध

    हम देख रहे टकटकी बाँध—

    उग रहा पूर्व में नवालोक, अभिनव वसंत।

    अब देर नहीं—

    विकसित हो कर जग का शतदल

    खोलेगा अपनी मुँदी आँख।

    जागृति की किरणों से ज्योतित

    होगा अशेष जग का प्रांगण;

    सौरभ से पूरित दिग्-दिगंत।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 86)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : भारतभूषण अग्रवाल
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2011

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