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जीवन के वैभव

jivan ke vaibhav

रमेश प्रजापति

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रमेश प्रजापति

जीवन के वैभव

रमेश प्रजापति

और अधिकरमेश प्रजापति

    कैसे झुठला दूँ जीवन के वैभव

    जबकि हर पल

    मेरी ज़रुरतों में शामिल

    कैसे कह दूँ कि

    झूठा है वह दृश्य

    कड़ी धूप में दो खंबों के बीच

    गंदे कपड़े में लिपटा

    झूल रहा है भविष्य

    माँ बजा रही है समय की ढोलक

    पढ़ने की उम्र में मासूम बेटी

    ज़िंदगी और मौत की रस्सी पर

    दिखा रही है करतब

    सूरज

    प्रतिदिन परिंदों के पंखों पर सवार

    चुपके से झकझोरता है मेरी अलसाई देह

    रात की हाँड़ी में

    उषा की रई से बिलकर

    जीवन के दुःख

    बदल जाते हैं उजास के नवनीत में

    अलस्सुबह

    मुंडे़र पर बैठी गौरैयाँ के स्वागत गीत गाते ही

    जगमगा उठती हैं दिशाएँ

    पहाड़ के सीने को भेदकर आई

    पहली किरण के वजूद से

    झिल-मिलाने लगते हैं सूने खंड़हर

    दिनभर की भागदौड़ के बावजूद

    लौटता हूँ जब

    डगमग पगडंडियों से

    घर की ओर

    हौसले के टिम-टिमाते पटबीजने

    जगमग करते हैं मेरी राह

    भुरभुरी माटी गुदगुदाती है मेरे तलुवे

    कैसे झुठला दूँ जीवन के वैभव

    जो मिले हैं विरासत में

    परंतु समय का निर्दई बाज़

    हरदम आतुर रहना है उन पर

    मारने को झपट्टा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रमेश प्रजापति
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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