झउआ के फूल

jhaua ke phool

मदन वात्स्यायन

मदन वात्स्यायन

झउआ के फूल

मदन वात्स्यायन

कातिक कुआर की भोर-किरण नहीं फूटी अभी,

बाँह हवा यह छेदती पग रेत लगी,

झउआ-सी छाती की हड्डियाँ रे धनी, डोल रहीं

डोलता दिल तुम्हें देख ‘बताओ, तुम कौन अरी!'

'झउआ के फूल हम लोग', सुंदरी एक बोल उठी।

'पाला से हमें नहीं डर बटोही', सुन सब हँस दीं।

'गाँव कहाँ रे धनी, बास कहाँ रे, तुम कहाँ रहतीं?'

'झउआ के फूल हम लोग', सुंदरी वही बोल उठी,

'गाँव के बाहर झोंपड़ी झाड़ी-झाड़ बसी

'झाँके कोई उस ओर, बटोही', सुन सब हँस दीं।

'खाती नमक-तेल बोर रे महुआ की रोटी कड़ी,

सुंदरी सुघर तेरे अंग मुझे है अचरज रे अति।'

‘झउआ के फूल हम लोग', सुंदरी वही बोल उठी,

'नीरस रेत में प्राण, बटोही', सुन सब हँस दीं।

'चलो, चलो, मालिक के खेत, जाएँ वह सखी कहीं'

जल्दी-जल्दी मुँह निज पोंछ किलकती भाग चलीं।

थाम लिया हाथ मैंने उस चुलबुली का, ‘री ठहर धनी,

एक क्षण बोल मृदु बोल, भला रे ऐसी कैसी जल्दी।

लाल बादाम ऐसे ओंठ शहद रंग सूरत भली,

मिसरी ऐसी तैरती आँखें रे बर्र ऐसी भौंह-बरौनी।

शरबत ऐसा तेरा रूप दीपक ऐसी ज्योति जगी,

चलो, करो घर उजियारा, रे बाग़-बाड़ी हरी रे भरी।'

'मालिक की रे जमीन शकरकंद-जंगल-भरी

उसको कमाने हम जाएँ, छोड़ो रे हटो, ढीठ बटोही।'

‘मिट्टी-रंग तेरी यह साड़ी, रे पत्ता-रंग चोली सजी,

कंद-रंग धनी, तेरे अंग, बाहर रूखी भीतर मीठी।

फूल-रंग तेरे धन केश दे और नयनों की पुतली!

आओ, बैठो, तुम्हें देख मालिक बिसरेगा कंद की सुधा।'

'धत् !' बोली लज्जित प्रियंवदा हाथ झटक भगी,

कर में उठाए साड़ी-चून मचकती रे हरिणी-सी।

फिर एक झउआ के पास कुछ-एक क्षण खड़ी हो रही,

रंज से अधिक काली भौंहें रे आँखें हँसी से उजलीं।

बंकिमा ओंठों की लाल दुलार-भरी रंज-भरी

पतले घूँघट में ज्यों रूप निखरता है सौ गुना ही।

‘झउआ के फूल हम लोग, रे झउआ की सूखी लकड़ी,

पीठ बने धोबिया का पाट मालिक यदि देख ले अभी

बाबा होंगे मालिक के द्वार-बहारे राह अकेले अभी।

घूरते हो क्या इस ओर रे ऐसे बड़े ढीठ बटोही!

झउआ के फूल श्वेत लाल', वाणी यह मेरे मुँह से कढ़ी,

ऊषा और प्रात प्रतीक नए दिन के री सखी!'

स्रोत :
  • पुस्तक : शुक्रतारा (पृष्ठ 33)
  • रचनाकार : मदन वात्स्यायन
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 2006

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