जंगल में झील जागती

jangal mein jheel jagti

अनुवाद : गगन गिल

हरभजन सिंह

हरभजन सिंह

जंगल में झील जागती

हरभजन सिंह

जंगल में झील जागती है

दिन हो रात हो

सोने का समय नहीं

एक जगह पड़ी हुई

संशय का सहम का

रास्ता रहे नापती

देह के दरवाज़े पर बार-बार दस्तक

आया कौन गया

मेरी पीठ सहलाकर

देह में उछलते लहू का शोर

पानी में झुनझुनी पवन की

हरी-हरी घास से रगड़ती

आवाज़ किसी नन्हे से नाग की

सो जाना घर से परदेस चले जाना

कौन हिफ़ाज़त करेगा

अनछुए खज़ाने की

पानी अनपिए की

अभी-अभी कुरता ओढ़नी खूँटी पर टाँगा

सूखने को रखा एकदम कोरा अनरंगा

सपना इन पर कोई हर्फ़ लिख दे

सुच्ची को फ़्रिक़ दाग़ की

अंबर के बादल उसके पानी में तिरते

पंछी भी फासले

उसके पानी में तय करते

पवन में नन्हा-सा पत्ता भी बोले

उसके भी स्पर्श से फ़र्श इसका डोले

सीढ़ी-दर-सीढ़ी रोज़ उतरती जाएँ शूलें

चिंता हमेशा इसे

अपनी ज़मीन में औरों के बाग़ की

सदियों के पतझड़ में बिछे पीले पत्ते

उनमें दबे पाँव चलता कोई जानवर

लगता है चोरी-चोरी इधर बढ़े आता है

कर देगा पानी जूठा

गुज़र भी गया अगर पास से

जंगल में झील जागती है।

स्रोत :
  • पुस्तक : जंगल में झील जागती (पृष्ठ 175)
  • संपादक : गगन गिल
  • रचनाकार : हरिभजन सिंह
  • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस
  • संस्करण : 1989

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