इस नाटक का नाम

is natk ka nam

पंकज सिंह

पंकज सिंह

इस नाटक का नाम

पंकज सिंह

बेचैन भागती नदियाँ रेत में दम तोड़ देती हैं

चीख़ों से बिंधे हैं मटमैले दिन

पेड़ लगातार पत्ते गिरा रहे हैं

अँधेरा हो चला है पूजनीय आलोक

अपार्थिव आभा से दीप्त अभिनेता कहता है—

बेमानी हैं मुखौटे अब

चेहरे हैं उनसे ज़्यादा कामयाब

ढँक जाती है ज़रा से अभ्यास के बाद

कोई भी कुटिलता, कैसी भी घृणा

करुणा-भरी मुस्कान की गाढ़ी ओट में...

अकस्मात प्रकट होती हैं रंग-बिरंगी रोशनियाँ

यहाँ से वहाँ तक फैल जाता है कोई नया तमाशा

जो सोचते हैं नहीं रहना है महज़ दर्शक

तय करना चाहते हैं अपनी कोई भूमिका

उन्हें धकेल दिया जाता है समय के हाशिए पर

जहाँ चलती हैं हू-हू करती आँधियाँ

कोई नहीं सुनता किसी की आवाज़

पागल हवाओं के शोर में

शब्दों के बीच की ख़ाली जगह में

भरा है पशुओं का उल्लास

चंद्रोदय के क्षीण प्रकाश में चमकती हैं

इधर-उधर बिखरी हड्डियाँ

चिल्लाता है उन्माद में नाचता पारंगत पतंगबाज़—

तुम दहो चिंता के कुंभीपाक में

रहो पड़े कुंठा में

ध्वस्त कर डाले मैंने सारे के सारे दुर्ग

पूरा आसमान ख़ाली है

मूर्खो, काट चुका हूँ सबकी पतंगें

मेरी पतंग के पुछल्ले हैं अब इंद्रधनुष

दर्ज करो यह अभूतपूर्व समाचार...

सावन की बारिश में गिरता है ख़ामोशी पर ख़ून

मूसलाधार ख़ून ख़ामोशी में

ख़ामोशी पर

कोई विदूषक लुढ़का ले आता है एक तोप

लोग समझ नहीं पाते इस हरकत का

मानी-मतलब

पर लिखता है सराहना में चश्मा ठीक करता

संपादक—

अमुक जी ले तो आए तोप!

हर चीज़ का अपना समय होता है

आएगा इस तोप का भी समय

कितना मर्मस्पर्शी है यह प्रयास

इसकी कथित निरर्थकता तो प्रमाण है

ऊसर दिमाग़ों का

उधर ही स्वर्णिम भविष्य है, पाठको

जिधर जाएगी यह लुढ़कती हुई

कुछ हुआ तो इसमें घोंसले बनाएँगे

सांस्कृतिक पंछी

शालीन उदासी और हताशा के तिनकों से

संयोगवश जिनसे भरा है

हमारा वध्य प्रदेश...

चित्रकार बना रहे हैं सपनीली पृष्ठभूमियाँ

पा रहे हैं पारितोषिक, सम्मान और दुशाले

भाँति-भाँति के शिल्पी व्यस्त हैं

नाना प्रकार की प्रविधियाँ जुटी हैं

संगीत और ध्वनि-प्रभावों की रचना में

वाद्यवृंद गूँज रहे हैं दसों दिशाओं में

गवैए अनथक गा रहे हैं

और पा रहे हैं पारितोषिक, सम्मान और दुशाले

नहीं मालूम हो पाता यह कोई आरंभ है

या कलाओं का अंतिम संस्कार

पता नहीं किन अँधेरे कुँओं में बंद हैं आत्माएँ

काया की कारा से परे

सहूलियत के साँचे ढला विवेक है

सलीक़े हैं, नुस्ख़े हैं

बच निकलने के कारगर तरीक़े हैं

ईमान की जगह चिथड़े हैं

इन्हीं चिथड़ों से

बनाई जाती है राष्ट्रीय पोशाक

जिसे पहनकर भद्रजन जाते हैं

शांति वार्ताओं और शोकसभाओं में

समयहीन सुख वैभव में विचरती हैं

भद्र महिलाएँ

अंतहीन प्रेम की भंगिमाएँ पसारे

लताओं-सी लिपटी

राजकाज वाले समाज में गुनगुनी गुनगुनाती

जिनमें कहीं नहीं दिखता

कोई माँ का चेहरा

बहनों के पीले मुख उदास

किसी दुख की छाया अपमान के छींटे

चोर सिपाही से सिपाही संतरी से

संतरी मंत्री से मंत्री राजा से कहता है—

बुझा दी गई है सारी आग

हटाई जा चुकी लाशें

कोतवालियों के रोज़नामचे ख़ाली हैं

बाक़ी बची है थोड़ी-सी धरपकड़

सो तो चलती ही रहती है

किसी से कहें कि नींद में सुनते हैं हम

अपना ही रोना

खिड़की से बाहर शायद अपनी ही कराह

किसी विस्मृत नदी के किनारे

अपने ही पैरों की छप-छप ध्वनियाँ

प्यास की तड़प के अनगिने मुहानों पर

देखो तो सचमुच जो सुंदर था सब नष्ट

किया जा चुका? उतनी ही है तुम्हारी दुनिया

महज़ वही जितने में है घटाटोप

अभिनेताओं का विदूषकों का पतंगबाज़ों का?

हो सकता है अभी लगती हो नामुमकिन

उम्मीद-सी कोई भी चीज़

मगर देखो तो

बिला गया

समारोहों की मायावी धुँध में

बगुलों के विमर्श में

सब कुछ?

उनसे भी पूछना ये सवाल

जो अनमने लगें

आसानी से मन की बताएँ

उनसे भी जो इंतज़ार में हों ख़ामोश

छोटे-मोटे सुख-दुख सहेजे

ज्यों फ़क़त घास-पात

पूछो इस नाटक का नाम

स्रोत :
  • रचनाकार : पंकज सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

संबंधित विषय

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY