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आस्तीक वाजपेयी

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और अधिकआस्तीक वाजपेयी

    भाग तो मैं भी सकता था

    लेकिन रुका रहा।

    ख़ाली पन्ने की स्तब्धता को

    सहता रहा, भागा नहीं,

    उससे भी ज़रूरी लिखता नहीं रहा।

    लेकिन यह तो मेरी कायरता भी

    हो सकती थी कि मैं इस भाषा में

    वे गुस्ताख़ियाँ नहीं कर पाया

    जो इसका अधिकार थीं।

    मैं तो बहुत छोटा हूँ

    ‘आगे कुछ लिखेगा।’

    जैसे समय एक पानी का झरना हो

    जिसके नीचे लोग धुल जाते हैं।

    मैं कुछ भले ही लिख नहीं पाता

    लेकिन यह तो कह सकता हूँ

    कि एक भाषा मेरी भाषा,

    इत्तिफ़ाक़ से नहीं बनी।

    वह शब्द के ज्ञान

    या व्याकरण से नहीं,

    वह तब बनी जब मेरे सपने में

    घुस आई और बोली

    तुम जैसों से क्या होगा।

    कुछ ऐसा होता है।

    लेकिन अब इस विफलता का

    रिवाज़ नहीं बचा।

    मुझसे इसके अलावा

    कुछ बनता भी तो नहीं।

    समय भाग गया

    जब तक मैं कुछ लिख पाता तब तक,

    और जब लिखना शुरू किया तो

    ख़ुद भाग जाना चाहिए था।

    भाग तो सकता था

    वह विध्वंस भी

    जो हमारी शताब्दी को ओढ़कर

    सो गया है।

    वह समाज भी

    जिसने बहुत मेहनत से

    अपनी भाषाओं पर गौरव महसूस करना

    बंद कर दिया।

    तो इस अदने से लेखक को तो

    रुकना ही था।

    जो गालियाँ बुरी लगतीं

    वह भी इसी भाषा में थीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : थरथराहट (पृष्ठ 49)
    • रचनाकार : आस्तीक वाजपेयी
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

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