हे राजकमल!
सुन्दर शतदल!
शुचि मानसरोवर मध्य खिलल।
विकसित उज्ज्वल
अतिशय निर्मल
मधुयुत कोमल
सुरभित परिमल
सौरभ मलयानिल केर शीतल
लोकक करैत सुरसित हीतल
चहुँदिशि सुगंध खिरबैत चलल।
ओ रूप मनोहर, शील विमल
सौजन्य, विनय, मुसकान धवल!
अंकित ओहिना स्मृति केर पटल
मन पारि होइत अछि चित्त विकल
गज-काल आबि कय कैल कवल।
ओ दिव्य कमल सुकुमार नवल!
सभकेँ करैत शोकित विह्वल।
तजि देल अहाँ नश्वर भूतल
मुसुकैत रही जहिना सूतल।
साहित्य जगत मे कीर्त्ति अचल
अक्षुण्ण रहत युग-युग प्रतिपल।
मर्म स्पर्शी ओ विधा सकल
सर्वदा अमर भय रहत बनल।
सुकुमार कथा केर राजमहल।
सुकुमार काव्य केर ताजमहल!
प्रतिभाक पुंज हे राजकमल!
वाणीक दिवंगत पुत्र सबल!
अगणित मानस मे रहब बनल।
हे अमर! हमर शुचि राजकमल।
- पुस्तक : हरिमोहन झा रचनावली खण्ड-4 (पृष्ठ 84)
- रचनाकार : हरिमोहन झा
- प्रकाशन : जनसीदन प्रकाशन
- संस्करण : 1999
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.