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कजरी के गीत मिथ्या हैं

kajri ke geet mithya hain

मनीष कुमार यादव

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मनीष कुमार यादव

कजरी के गीत मिथ्या हैं

मनीष कुमार यादव

और अधिकमनीष कुमार यादव

    अगले कातिक में

    मैं बारह साल की हो जाती

    ऐसा माँ कहती थी

    लेकिन जेठ में ही मेरा

    ब्याह करा दिया गया

    ब्याह शब्द से

    डर लगता था

    जब से पड़ोस की काकी

    जल के एक दिन मर गई

    मरद की मार

    और पुलिस की लाठी से

    मरी हुई देहों का

    पंचनामा नहीं होता

    ही रपट लिखाई जाती है

    नैहर में हम हर साल सावन में कजरी गाते थे—

    ''तरसत जियरा हमार नैहर में

    कहत छबीले पिया घर नाहीं

    नाहीं भावत जिया सिंगार नैहर में''

    गीतों में ससुराल जाना अच्छा लगता है

    लेकिन कजरी के गीतों से

    ससुराल कितना अलग होता है

    नैहर और ससुराल

    दो गाँवों से ज़्यादा दूरी का

    मैंने व्यास नहीं देखा

    ही इससे ज़्यादा घुटन

    मैं घुटन से तंग हूँ

    लेकिन सब कुछ पीछे छोड़कर

    कहीं नहीं जा सकती

    विवाहित स्त्रियों का भाग जाना

    क्षम्य नहीं होता

    उनको जीवित जला दिया जाना

    क्षम्य होता है

    कुछ घरों की बच्चियाँ

    सीधे औरत बन जाती हैं

    लड़कियाँ नहीं बन पातीं

    कजरी के गीत मिथ्या हैं

    जीवन में कजरी के गीतों-सी मिठास नहीं होती!

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीष कुमार यादव
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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