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घर

ghar

उत्पल बैनर्जी

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और अधिकउत्पल बैनर्जी

    मैं अपनी कविता में लिखता हूँ ‘घर’

    और मुझे अपना घर याद ही नहीं आता

    याद नहीं आती उसकी मेहराबें

    आले और झरोखे

    क्या यह बे-दरो-दीवार का घर है!

    बहुत याद करता हूँ तो

    टिहरी हरसूद याद आते हैं

    याद आती हैं उनकी विवश आँखें

    मौत के आतंक से पथराई

    हिचकोले खाते छोटे-छोटे घर... बच्चों जैसे,

    समूचे आसमान को घेरता

    बाज़ नज़र आता है... रह-रह कर नाखू़न तेज़ करता हुआ

    सपनों को रौंदते टैंक धूल उड़ाते निकल जाते हैं

    कहाँ से उठ रही है यह रुलाई

    ये जले हुए घरों के ठूँठ... यह कौन-सी जगह है

    किनके रक्त से भीगी ध्वजा

    अपनी बर्बरता में लहरा रही है... बेख़ौफ़

    ये बेनाम घर क्या अफ़ग़ानिस्तान हैं

    यरुशलम, सोमालिया, क्यूबा

    इराक़ हैं ये घर, चिली कम्बोडिया...!

    साबरमती में ये किनके कटे हाथ

    उभर आए हैं... बुला रहे हैं इशारे से

    क्या इन्हें भी अपने घरों की तलाश है?

    मैं कविता में लिखता हूँ ‘घर’

    तो बेघरों का समुद्र उमड़ आता है

    बढ़ती चली आती हैं असंख्य मशालें

    क़दमों की धूल में खो गए

    मॉन्यूमेंट, आकाश चूमते दंभ के प्रतीक

    बदरंग और बेमक़सद दिखाई देते हैं।

    जब सूख जाता है आँसुओं का सैलाब

    तो पलकों के नीचे कई-कई सैलाब घुमड़ आते हैं

    जलती आँखों का ताप बेचैन कर रहा है

    विस्फोट की तरह सुनाई दे रहे हैं

    खुरदुरी आवाज़ों के गीत।

    मेरा घर क्या इन्हीं के आस-पास है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : उत्पल बैनर्जी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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