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घमंड कर रहे हैं पहाड़

ghamanD kar rahe hain pahaD

अनुवाद : डी.एन. श्रीनाथ

ना. मोगसाले

अन्य

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ना. मोगसाले

घमंड कर रहे हैं पहाड़

ना. मोगसाले

और अधिकना. मोगसाले

    घमंड कर रहे हैं पहाड़;

    हम कितने ऊँचे हैं

    चढ़ना आसान नहीं है किसी को अपने शिखर तक

    मगर एक छोटा सा चूहा

    काट सकता है बिना कोई मुरव्वत

    किसी भी पहाड़ को चाहने पर

    सागर गरजता है।

    अपने मुँह बड़ा है

    कोई भी नहीं जान सकता अपनी गहराई और चौड़ाई

    मगर

    सागर के अंदर जो हैं मोती, अपने आप बढ़कर

    सोचते हैं कि यह नमक ज़रूर नहीं चाहिए

    और आते हैं आदमी के पास ही मुँह खोलकर

    आसमान भी घोषित करता है मौन रूप से

    सुबह और शाम

    सूरज और चाँद पैदा होते हैं मुझसे ही

    और

    पहाड़, सागर भी

    घमंड करे और गरजने पर भी

    नीचे ही रहेंगे अपने पाँव के

    सागर

    किसी के खाकर फेंके बीज से

    पैदा होकर आसमान तक बढ़े पेड़

    आसमान जो छाया नहीं देता

    उसे कृपा करते हैं किसी को भी।

    भूख-कैसी भी हो, कहीं भी हो

    नहीं बहती, नहीं गरजती, नहीं करती शोषण

    बंदूक में छिपकर

    अंधकार को भी चीरकर

    सूरज को भी धिक्कारकर

    कर रही होगी इंतज़ार

    इस संसार को हड़पने के लिए

    सामने पड़ी तो अपनी जैसी और एक भूख

    अगर हो तो उसे भी निगलने के लिए।

    पहाड़ को काटते चूहे

    सागर की गहराई में मोतियाँ

    छाया देने वाले पेड़

    कहाँ रहे थे तब, मानव?

    कहाँ रहे थे?

    स्रोत :
    • पुस्तक : गांधी नामक प्रतिमा और अन्य कविताएँ (पृष्ठ 21)
    • रचनाकार : ना. मोगसाले
    • प्रकाशन : राजमंगल प्रकाशन
    • संस्करण : 2022

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