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गीध

geedh

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

अभय नायक

अन्य

अन्य

गाँव के छोर पर पड़ी है लाश

अनजान किसी आदमी की।

तीस साल के जवान छोकरे को

सभापति बना

वहाँ चल रही गीधों की सभा।

किसी ने उड़ा दी ख़बर

चालाक आदमी

लड़का इंजीनियर था

ब्याह किया था पिछले फागुन में

गोरी नर्स से

हमारे गाँव की मीनू मास्टरानी को

प्रेम करने की बात

कह दी लुंगीवाले छोकरे ने।

पढ़े-लिखे लोग भाँप लेने की तरह

कहने लगे

यह आदमी शिव सैनिक होगा

अच्छी लाठी घुमाता

कांग्रेस हटाओ” सभा में

भाषण दिया था

कम्युनिस्टों ने उसे देशद्रोही कह

बात फैला दी

ओह आदमी को मार डालता

शायद वे नक्सली होंगे।

किसी ने कहा कवि था

अच्छी वंशी बजाता

ज्ञानी था, फ़ॉरेन जाता।

तमिल टाइगर था,

पकड़ा जाता, आख़िर में सबको धोखा देकर

किसी ने पाकिस्तानी गुप्तचर होने की

बात घोषणा कर दी

इसी तरह गाँव भर में

हलचल पैदा कर

गीधों की सभा बैठी थी।

दिन दो घड़ी होने तक आए

कुछ पत्रकार, फ़ोटो उठाए, गए

पुलिस ने आकर पूछताछ की

जाने के बाद

कोलाहल के बीच

करने लगे इंतज़ार

अगले दिन के अख़बारों का।

मगर गीधों ने किसी का

नहीं किया इंतज़ार

खींचा खाल को

माँस और

रक्तहीन देह को

आदमी की शेषतम इच्छा को भी।

यहाँ सब लाश राजशाही हैं।

गीध पक्के हैं

यहाँ हर लाश राजा है

गीध निर्विकार हैं

यहाँ हर लाश नर्क

और हर नर्क लाश से बना

गीध कुछ नहीं पहचानता

किसी की गुहार नहीं सुनता।

गीध आतंकित नहीं होता जन्मदिन पर

ईश्वर के आगे निहोरे नहीं करता,

आहूत पाप में

गीध की साँस में जन्मांतर लाँघने की इच्छा

गीध की भूख पहचानती

मेरे रक्त की हर प्रतीक्षा।

उम्र उफनती सबकी

दूर लगता अपना क्षितिज

समय झलमला जाता

लौटता आदमी-सा

रहने की अवधि बहुत बेचैन लगती।

पास के लोग फेर लेते मुँह

टूट जाता सिंहासन का मोह

आख़री आदमी लौट जाने के बाद

आख़री मोह टूट जाता

गीध ही संभ्रांत मोह।

बचपन में सनकी माँ ने

देखा था पहली बार गीध

अधेड़ उमर में

आज मुझे कसकर भींचते

नोंच रहे किसके नख

मैं नहीं जानता

उनका पता-ठिकाना।

गीध नहीं किसी के मीत

अथवा सखा

कोई नहीं उनका अपना

सबका अंतिम ठिकाना पहचानता

गीध का क्षुद्र कलेवर।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 306)
  • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
  • रचनाकार : अभय नायक
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2009

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