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गौर सुंदरी की काया-सी नदी बिछी है

gaur sundri ki kaya si nadi bichhi hai

कृष्ण मुरारी पहारिया

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कृष्ण मुरारी पहारिया

गौर सुंदरी की काया-सी नदी बिछी है

कृष्ण मुरारी पहारिया

और अधिककृष्ण मुरारी पहारिया

    गौर सुंदरी की काया-सी नदी बिछी है

    सूरज जिसके अंग-अंग से खेल रहा है

    और दूध-से धवल फेन की झीनी चादर

    किरणों की अँगुली से हँस—हँस ठेल रहा है

    तपः पूत सूरज की अनहोनी अभिलाषा

    और नदी का झिलमिल-झिलमिल यह मुस्काना

    तट पर खड़ी भीड़ ने यों तो देखा होगा

    किंतु नहीं रस की इस क्रीड़ा को पहचाना

    लगता है यह शांत नदी, यह चलता सूरज

    दोनों का युग-युग से गहरा मेल रहा है

    नावों की पतवार सँभाले, सुगठित बाँहें

    इसी नदी की पाली-पोसी संतानों की

    आर-पार करती रहती हैं पथिकों के दल

    देकर बलि प्रस्वेद और अपने प्राणों की

    कौन जानता है इनका यह अपराजित मन

    कैसे किस अभाव का संकट झेल रहा है

    स्रोत :
    • पुस्तक : यह कैसी दुर्धर्ष चेतना (पृष्ठ 83)
    • रचनाकार : कृष्ण मुरारी पहारिया
    • प्रकाशन : दर्पण प्रकाशन
    • संस्करण : 1998

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