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गंगा

ganga

वसीम अकरम

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और अधिकवसीम अकरम

    अब कि फिर उदास बैठी है गंगा

    कि दो दिन बाद

    उसके अमृत पानी में

    रंगों का ज़हर घोला जाएगा...

    इंसान तो ख़ैर इंसान ठहरे

    बस के ग़लतियों का पुतला हैं,

    गंगा तो इस बात से डरती है

    कि दशहरे के बाद

    देवी-देवताओं की जमात भी

    राक्षसों के साथ आएगी डूबने के लिए

    प्लास्टिक रंगों और कैमिकलों से

    मितली-सी आती है उसे...

    कभी-कभी साहिल पे आकर

    ख़ुद को पहचानने की

    एक कोशिश करती है

    और दर्द से सिहर उठती है

    जब ख़याल आता है उसे

    छोटी बहन यमुना के

    बेरंग काले पानी का...

    क्या करती भला गंगा

    इंसानों को पालने की

    ज़िम्मेदारी जो है उसके सिर पर

    बद्दुआ भी नहीं दे सकती...

    मगर हम इंसान तो

    एक इंसान ही ठहरे

    ग़लतियों का एक पुतला...

    स्रोत :
    • रचनाकार : वसीम अकरम
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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