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एक प्रेम की मृत्यु

ek prem ki mirtyu

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

सच्चिदानंद राउतराय

अन्य

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सच्चिदानंद राउतराय

एक प्रेम की मृत्यु

सच्चिदानंद राउतराय

तुम्हारे ही प्रेम का स्वर इसराज की तरह

बह आता है दूर से सुदूर तक

नदी बनकर, यहाँ के हंस की शुभ्रता में

काँस के फूलों की मर्मराहट में।

यहाँ का कदम्ब हो स्मृति का स्तंभ

समय का विरोधी स्थावर

एक मृदु संपर्क का स्थिर दृष्टिकोण

प्रचलित स्थिति स्थापक की।

प्रेम हो एक-एक करबी का उल्लास

भिन्न-भिन्न समय में खिले,

एक-एक स्वर में उसके सुनाई देता है, बज उठो

मेरे मन के हर क्षण में।

(कभी-कभार बेसुरा होकर सही।)

सफ़ेद बैण्डेज के नीचे से कई क्षण

मुझे आज साल रहे हैं रह-रहकर,

आज की वास्तविकता हो यदि एक बाधा

तीक्ष्ण किसी काँटे का विग्रह।

यहाँ की घटनाएँ और ये मिनट

यदि हो सकते हैं प्रतिकूल

बक़ाया ऋण की तरह, पिन की तरह

कर सकता है व्यर्थता का वार

दीर्घ आलिंगन तुम्हारा, हाथों की ऊष्मता

और वही ललचाई साँस

एक रूक्ष काग़ज़ अथवा शब्द का टुकड़ा

कर सकता है जटिल, निष्प्राण!

एक टूटे बटन का किनारा

बेसुरी खीझ-भरी आवाज़ से यदि भर दे

मन का आषाढ़

लंबी-लंबी अँगुलियों के पोर से यदि देखते-देखते

बह जाए तिरछा समय

भूली स्मृतियों का चाँद सपाट रेत पर

घोंघे और पदचिह्न ही परिचय हैं।

स्रोत :
  • पुस्तक : बसंत के एकांत ज़िले में (पृष्ठ 76)
  • रचनाकार : सच्चिदानंद राउतराय
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
  • संस्करण : 1990

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