मैं अपने में झाँकता हूँ
अपने ही क़दमों के ज़ीने से
अपने में गहरे उतर कर
पाता हूँ समय का पीला चेहरा
गुज़री घड़ियों की झुर्रियाँ
और एक दीर्घ अंध-अंतराल—अस्तित्व और विस्मरण के बीच।
उठी, मगर निष्क्रिय तलवारों के हरे मैदान पर
सूरज और चट्टान के बीच
भूरी खाल के नीचे के कौंधते प्रकाश की ओर
मैं पुराने रोमांचों की गुफा में से उतरता हूँ
1.
मुझे मिलता है एक शिशु कभी-कभी;
एक अबोध शिशु अपनी जिज्ञासाओं के सलीब पर टँगा,
रहस्य और पीड़ा के बंदरगाह में लंगर डाले
छोटे नए जहाज़ की तरह
धुँधले कुहरे में से स्मृति
उभर कर कहती है :
“हाँ उदास होने की बात है, हाँ
पर तुम्हारी बिल्ली अब भी उतनी ही प्यारी
जमुहाइयाँ ले रही है
और तुम्हारी जंगलों और समुद्रों की
सुकुँवार नायिका अब भी डाकुओं के चंगुल में है
उदासी की बात है, हाँ
पर अब भी वह आर्द्रता और उल्लास की जड़ी
कुँए की जगत पर उगी झूल रही है
पृथ्वी से सवालात पूछती हुई
और हेमंत के अपराह्नों में मुर्झाकर सूखती हुई।
हाँ, उदासी की बात है,
पर पुस्तकों के पृष्ठ, सब काल्पनिक और प्रत्युत्पन्न
दर्द से भरे हुए हैं
और तुर्श फल झड़ कर सड़ गए हैं
शायद उदासी की बात है :
लेकिन सबका सब रहता है, बाट जोहता है और बना
रहता है।
2.
स्वर्ग और नर्क के बीच के ढूह की ओर
चट्टान को
अंधे जल से, उसकी गोलकहीन अपलक दृष्टि से
छेदते हुए
उसकी अंधी दूरियों की धधकती लपटों से
छेदते हुए
विशाल सुरंग, खड़ी, अभेद्य।
कटी डालियों और अँधेरे के गह्वरों
के घेरे के पार
तुम हो अपनी मुस्कानयुक्त
अर्द्धपारदर्शी छाया,
तुम हो अपनी कथा कहानियों वाले वातावरण के साथ
फुदकती तितलियों और रोशनियों के साथ
अपनी दिव्य विश्राम मुद्रा
की ख़ामोशी में
3.
मैं समर्थन खोजना चाहता हूँ
सुबह को स्थापित करना चाहता हूँ
मैं पाना चाहता हूँ वह जीवन जिसने मुझे जिस्म दिया है
यह आकार
यह सुकुमार हल
यह यातना
मैं चाहता हूँ धरती मेरे चारो ओर लिपट जाए
मैं चाहता हूँ एक गहन धातु
सदा सजीव उद्दीप्त :
चरण चिह्नों की शृंखला मेरे पीछे!
इसके लिए मैं सवाल पेश करता हूँ अपनी नई अंतरात्मा से
अपनी आदिम स्मृति से
मैं अपने बाबत पूछता हूँ उस डूबे बच्चे से
उस मौन की सुरंग के अथाह जल को मथते हुए
मैं पूछता हूँ उस छाया से
मैं पूछता हूँ
अलसायी धाराओं, ख़ामोश मैदानों, उसमें उगी निष्क्रिय
तलवारों के बाबत।
और अस्तित्व और विस्मरण के उस अनंत अंतराल में
उम्र के धुँधले उत्खनन के बाद
निकलता है कुछ नहीं
सिवा समय का पीला बीमार चेहरा
कुछ नहीं
सिवा विस्मरण।
- पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 371)
- संपादक : धर्मवीर भारती
- रचनाकार : विल्बेर्तो कांतोन
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
- संस्करण : 1960
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