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दूँगा मैं

dunga main

भारतभूषण अग्रवाल

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और अधिकभारतभूषण अग्रवाल

    दूँगा मैं

    नहीं, नहीं हिचकूँगा

    कि मेरी अकिंचनता अनन्य है

    कि मैं ऐसा हूँ कि मानो हूँ ही नहीं,

    हाँ, नहीं हिचकूँगा

    कि तुम्हें तृप्त कर पाऊँ : मुझमें सामर्थ्य कहाँ

    कि अपने को निःस्व करके भी

    तुम्हें बाँध नहीं पाऊँगा,

    और नहीं सोचूँगा यह भी

    कि आख़िर तो तुम मुझे छोड़ चले जाओगे

    जैसे नदी का जल

    ढूहों को तोड़ कर

    छोड़ चला जाता है,

    सोच छोड़

    हिचक छोड़

    दूँगा मैं।

    देता हूँ।

    लो

    यह लो

    तुम अनजाने अतिथि आज-भर के!

    लो यह पराग

    जो अपनी अशक्ति में मात्र गुनगुनाहट है

    पर जिसे देकर

    ये मेरे ओंठ समाधि बन जाएँगे,

    लो यह आग

    जिस की चिनगी में जलन तो क्या

    ताप भी नहीं

    पर जिसे देकर

    यह मेरी अस्थि विभूति बन जाएगी,

    लो मैं देता हूँ

    अपना पराग-राग

    आग यह अपनी

    जो मैं हूँ,

    जो मेरा सर्वस्व है

    (पर जो नगण्य है)

    बेहिचक देता हूँ

    मुट्ठी पर मुट्ठी भर अपने को रीता कर देता हूँ—

    लो तुम

    अतिथि!

    यह सेवा स्वीकार करो

    भूल कर कि इस से तुम्हारा काम नहीं चलने का!

    देता हूँ

    क्योंकि तुम मेरे द्वार आए हो

    और मेरे पास है देने को अपनापन,

    देता हूँ

    क्योंकि मैं जानता हूँ।

    कि तुम मुँह-अँधेरे से

    इस गली के घर-घर के द्वार पर

    दस्तक दे-दे कर थक गए हो—

    भीतर थी चहल-पहल, राग-रंग-गूँज समारोह की

    पर किसी ने सुनी नहीं तुम्हारी वह खटखटाहट

    क्योंकि सबने सोचा कि तुम तो भिखारी हो

    दीन-हीन याचक

    परोपजीवी,

    पर मैं पहचानता हूँ

    कि तुम अतिथि हो

    तिथि से परे हो

    इतिहास हो!

    दूँगा मैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 104)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : भारतभूषण अग्रवाल
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2011

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