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दिल्ली दंगा

dilli danga

मीना प्रजापति

अन्य

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मीना प्रजापति

दिल्ली दंगा

मीना प्रजापति

और अधिकमीना प्रजापति

    रात का एक बज गया था

    आँख बंद की तो

    काले नाले की काली कीचड़ से

    कई दिनों से पड़ी काली लाशों को

    निकालते कई लोग दिखाई दिए

    दोनों पुतलियाँ पलकों के भीतर

    फड़फड़ा रही थीं

    दिमाग़ में चारों तरफ़ से

    ज़ोर-ज़ोर से

    आवाज़ें रही थीं

    रहम करो, छोड़ दो

    मत मारो, हम इसी मुहल्ले के हैं

    टीवी पर एंकर डकार मार रहे थे

    दिल्ली दंगा दिल्ली दंगा

    हिंदू दंगा, मुस्लिम दंगा

    सरकारी दंगा, निजी दंगा

    उधर एक माँ बिलख रही थी

    रात-रात भर जिस लाल को

    रतजगा कर सेवा था सींचा

    आज उसे बरसों के लिए

    सुला दिया गया है

    वो बाहें फैलाए

    आसमान से शिकायत करती है

    सूखे आँचल की हरियाली माँगती है

    बदले में उसे

    सत्ताई मुआवज़ा मिलता है

    सब कुछ इतना काला हो गया था

    कि हर ओर नाले की कीचड़-सा

    ही एहसास हो रहा था

    आज वो टूटी, लूटी, फूँकी दुकानें-दीवारें

    रंग गई हैं, मुआवज़े से पुत गई हैं

    मगर मेरी स्मृति में बैठा

    दिल्ली दंगों का यह इतिहास

    कैसे मिटेगा

    इसकी आवाज़ें गाहे-बगाहे

    मेरे बेहोश मन का दरवाज़ा

    खटखटा ही जाती हैं

    बार-बार एहसास होता है

    कहीं कोई मेरा भी तो हाथ

    अपनी ओर नहीं खींच रहा है

    हड़बड़ा कर उठ जाती हूँ मैं

    और अपने हाथ को निहारती हूँ

    फिर सोचती हूँ

    अब सो जाती हूँ

    हिंसा की आग से

    काली हो गई दीवारों की

    कालिख मेरे ज़हन में उतर चुकी है

    अब हिम्मत नहीं बची है

    याददाश्त के किसी कोने में

    बैठी यह घटना

    इतिहास बन नहीं रही है

    वर्तमान ही बनी रह रही है

    और भविष्य डरा रहा है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मीना प्रजापति
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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