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धरती और मानव

dharti aur manaw

अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित

कृषणचंद्र त्रिपाठी

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कृषणचंद्र त्रिपाठी

धरती और मानव

कृषणचंद्र त्रिपाठी

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    छोड़ दो, छोड़ दो मुझे!

    चला जाऊँ विशाल धरा पथ पर।

    सारे स्वार्थ, सारे लघु बंधन

    मत रखो, मत रखो खींचकर।।

    धरती का स्वार्थ मैं, माटी की संपदा

    विराज जीवन हूँ, विराट में लीन होकर।।

    असीम के केंद्र से आया हूँ धरा पर,

    अच्छा नहीं लगता मुझे बैठ-बैठकर।

    धन-जन, गो-लक्ष्मी, माटी और मानव,

    किसी को छोड़ पाता,

    सब मेरे जीवन की धारा!

    सब होंठों पर मेरी भाषा, हर दिल में मेरी आशा।।

    कहीं कोई रो रहा या गिरा हुआ,

    अनादर, अनाहार में पड़ा हुआ।।

    जाऊँ वहाँ दौड़कर सबका अपना बना,

    हर अँधेरे का दीपक बना।।

    आदमी का निवास मन में बनाऊँगा,

    आदमी को ह्दय में,

    अपनी छाती में बसाऊँगा।

    अपनी हँसें तो हुलस उठे देह-मन

    रेणु-रेणु में खिल उठता जीवन

    आदमी जागे तो,

    जाग उठता है सिंह का-सा बल।।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 68)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : कृष्णचंद्र त्रिपाठी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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