देवताओं के बरअक्स मनुष्य से प्रेम

dewtaon ke baraks manushya se prem

कविता कादम्बरी

कविता कादम्बरी

देवताओं के बरअक्स मनुष्य से प्रेम

कविता कादम्बरी

बाज़ार में बहुत चेहरे हैं देवताओं के—ढोते हुए नकली शाश्वत मुस्कान

जबकि मनुष्यों के चेहरे कुम्हला जाते हैं

अनगिनत पाँवों की रिसती बिवाइयाँ देखकर

मैंने छुई हैं देवताओं की मरमर-सी तराशी हुई कठोर भुजाएँ—

हथियारों से सुसज्जित मगर जड़

जबकि मनुष्य अपने हथियारविहीन हाथ हवा में लहराता है

अत्याचारी तोपों के ख़िलाफ़

मैंने देवताओं के चिरयुवा चेहरों को बेहद क़रीब से देखा है

गलतियाँ करने के मद से भरे—

पूरे ब्रह्मांड की रौशनी

अपने आभामंडल में लेकर घूमते हुए

जबकि मनुष्यों के चेहरे

ग़लतियों की रेखाओं से भरे हुए

हो जाते हैं बूढ़े

और अपराधबोध और प्रायश्चित में कांतिहीन

मैंने देवताओं को देखा है चढ़ावों पर गदगद होते हुए

जबकि मनुष्य भूख से बिलबिलाते हुए भी

मुफ़्तख़ोरी से भरी कोठार ठोकर से लुढ़का देता है

मैंने देवताओं को देखा है अमर

मगर अन्याय के लिए आँखें मूँद

आराम-शैय्या पर लेटे हुए निस्पृह

जबकि मनुष्य मौत की संभावनाओं के बाद भी संघर्ष में कूद पड़ता है

मैंने देवताओं को देखा है अभंग मगर प्रेम से दूर

स्तुति से प्रसन्न हो करते हुए कृपा

जबकि मनुष्य टूट जाने की नियति

और दुत्कारे जाने की आशंका देखकर भी

बिखरने तक करता है प्रेम

आज के समय में जबकि मनुष्य होना एक मिथक है

देवताओं से घिरी हुई मैं

उन्हें मनुष्य हो जाने को घुड़कती हूँ

उनकी उपेक्षा करते हुए

एक मनुष्य से करती हूँ प्रेम

और उसके देवता हो जाने की कल्पना मात्र से

डरती हूँ,

बेहद डरती हूँ।

स्रोत :
  • रचनाकार : कविता कादम्बरी
  • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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