Font by Mehr Nastaliq Web

जय दुर्गे

jay durge

बालमुकुंद गुप्त

अन्य

अन्य

बालमुकुंद गुप्त

जय दुर्गे

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

     

    (1)

    जाग-जाग जगदंब मात यह नींद कहाँ की।
    कस दीन्हीं बिसराय बान सुत वत्सल माँ की।
    एक पूत की मात नींद भर कबहुँ न सोवत।
    तीस कोटि तब दीन हीन सुत तव मुख जोवत।
    अपने निरबल निरधन सुतहि,
    मात रही बिसराय कस!
    यो मोह छोह सब छाड़ि के,
    होय रही क्यों नींद बस?

    (2)

    रोगी दु:ख भोगी भूख तव सुत बिडरावहिं।
    पेट हेत नित मरैं पचैं भरपेट न पावहिं।
    करहिं अधर्म कुकर्म करहिं बहुविधि सुख कारो।
    जागहु-जागहु मात दु:ख इन सबको टारो।
    उठहु अंब! संकट हरो,
    निद्रा दूर बहाय कै।
    कर साठ कोटि जोरें खरे,
    द्वारे तव सुत आयकै॥

    (3)

    एक बार सुरराज मात तू आन जगाई।
    नयन खोलि तम पीर भक्त की तुरत मिटाई।
    स्वर्ग भ्रष्ट सुरपति कहँ पुनि इंद्रासन दीन्हो।
    असुरन कहँ करि जेर सुरन चित प्रमुदित कीन्हो।
    लाखाघर जरिते पंडु सुत,
    लीन्हे मात उबारि तुम।
    कस सोई लंबी तानिकै,
    मातु हमारी बारि तुम॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 601)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए