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भूख

bhookh

अनुवाद : हिरण्मय

जयदेवि तायि लिगाडे

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और अधिकजयदेवि तायि लिगाडे

    बैठी अकेली मैं किसी समय बार-बार

    सोचती हूँ विश्व की विशालता का आर-पार

    ‘यह विश्व तेरी लीला है, बच्चों का खेल’

    हे देव, मैं कुछ समझ पाती हूँ इस कथन का सार।

    रात-भर तू वास कर इस कदर मेरे मन में

    सुबह होते ही ओझल होता है कुछ कहते-कहते

    तब हो जाती हूँ कुछ भ्रांता-सी पगली-सी

    जाग बैठती हूँ, हँस पड़ती हूँ, आप-ही-आप।

    अरी पगली! कहकर चौंक पड़ती हूँ देख-देख

    उठती हूँ जब मूर्छा से, बोलने वाला है उसका बोल,

    हो गया हो कुछ ऐसा ही, तेरी बेटी मैं कुछ खेलती हूँ!

    अँधेरी रात में और निशा की नीरवता में मैं

    नींद पाकर खड़ी हो जाती हूँ छत पर

    निशावृत नभ से फिर कुछ खेलती जाती हूँ मैं,

    मूक बना है जग सारा अपने ही सपने में!

    सिर अपना ऊँचा कर निहारती हूँ नभ की गहराई

    पर हाय! मानस की मौनता तज नहीं पाती हूँ,

    आश्चर्य और मौन से कुछ बोलती ही जाती हूँ

    कैसा दर्शन है! मूँदकर नयन देखती ही जाती हूँ।

    नभ के कोटि-कोटि तारे प्रतिबिंबित होते हैं

    मेरे इन छोटे-छोटे नयन तारों के कोने में,

    तेरी अनंतता का अंत मुझमें है कैसा अचरज

    जैसे कि बिंबित होता है सारा नभ इन नयनों में।

    तेरी मंगल-महिमा और करुणा का सार

    मुझे बुला रहे हैं बड़े प्यार से बार-बार।

    ख़ुशी की वर्षा कर और सुख वसंत देकर

    भाग्य मेरा रहा है निकट मेरे द्वार।

    मन का सारा मद चूर कर चमकी है वा ज्योति

    जो छिपी है महाज्योति में एक होकर ज्योति

    स्वयं चल-चलकर शक्ति रूप है वह ज्योति

    मिटाती है जीव की व्यापकता दूर कर सब ताप!

    तू है शांति-सागर और नित्य निराकार

    ज्ञान-स्वरूप स्वयं तू है, गा उठते हैं स्वर-तार।

    अपना आत्मगीत जो कि है उस अम्बुधि में लीन

    हे सिद्ध राम, उस ज्योति से अलग नहीं हूँ मैं।

    नारिकेल फलरूपी निज को इस काया में भर देती हूँ

    कड़ा होकर जब वह परिपक्वता पाता है

    तब उठकर मैं हे प्रभो, सवेरे-सवेरे

    तन-रूपी नारियल फोड़ती हूँ तेरे चरणों में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 151)
    • रचनाकार : जयदेवि तायि लिगाडे
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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