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मुँह की खाता हूँ

munh ki khata hoon

प्रकाश

अन्य

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मुँह की खाता हूँ

प्रकाश

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    एक समय में समय की कथा लिखने की

    इच्छा धारे हूँ

    समय का उठा हुआ एक हाथ लिखता हूँ

    कि दूसरा अपनी तर्जनी के साथ

    एक दूसरी दिशा में उठता है

    दूसरा हाथ लपक कर छूता हूँ

    तो पहले का दृश्य धुल कर मिट जाता है

    समय की थोड़ी त्वचा किसी भाँति लिखी जाती है

    तो बहुत कोमल वह आँख की पलक

    भीतर मुँद जाती है

    समय की लपलप जिह्वा को ताबड़तोड़ पकड़ता हूँ

    ओह! अतल-सी गुहा

    उसके कंठ के भीतर उतरती है!

    पर शर्म नहीं मुझको आती है

    समय का पूरा मुख गिद्ध-सा देखना चाहता हूँ!

    अपने ही मुँह की खाता हूँ!

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रकाश
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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