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गृहस्थ और वैराग्य

grihasth aur vairagya

उद्भव सिंह शांडिल्य

अन्य

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उद्भव सिंह शांडिल्य

गृहस्थ और वैराग्य

उद्भव सिंह शांडिल्य

और अधिकउद्भव सिंह शांडिल्य

    माँ के लाख बुलाने पर भी,

    गोधूली में नहीं आता है अब,

    कोई भी साधु जिसके डर से बचपन में हम सब रोकर ही सही,

    जल्दी-जल्दी मन को नही लुभाने वाले रोटी और नेनुआ की सब्जी खाकर सो जाते थे।

    माँ भी नही बुलाती उन साधुओं को।

    वो जानती है कि अब बुलाने पर भी,

    रात में बच्चों के भरे पेट का टोह लेने,

    अब! साधु नहीं सियार आते हैं।

    जहाँ साधु बच्चों के सपनों में पेट पर अपनी नरम हाथों को फेरकर,

    खाली पेट वालों को वैराग्य का डर दिखाते थें,

    वही आज सियार उन बच्चों की कुक्षि को नोंचकर फाड़ डालते हैं।

    इन दस-बीस सालों में मानों एक युग बदल गया है।

    कितने ही घातक एवं सुखदायक वृताँतों को,

    कितने सहज एवं व्यवहारमूलक उदाहरणों के द्वारा बचपन से ही ढ़ीठों की भाँति,

    इन्हें सह जाने की प्रवृति को अंकुरित कराया जाता है न?

    और इसी कड़ी में,

    कुछ इस तरह से हममें विकसित हो जाती है

    वैराग्य से तनिक झिझक एवं गृहस्थ से थोड़ी ज़्यादा आसक्ति॥

    स्रोत :
    • रचनाकार : उद्भव सिंह शांडिल्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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