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चंद्रलग्ना नारी

chandrlagna nari

अनुवाद : सच्चिदानंद दास

प्रवासिनी महाकुड़

प्रवासिनी महाकुड़

चंद्रलग्ना नारी

प्रवासिनी महाकुड़

जीवन के किस उम्र में थे ये सब?

पट्टी, खड़ियाँ,

अमरूद के पेड़ पर तोते और चमगादड़

सागवान के दरख़्त पर छोटे-छोटे फूल...!

बीरबहूटी, तितली और झिंगुर के पीछे

दौड़ने का निष्पाप शौक...

आसमान के तारों को

बारबार गिनने का विफल प्रयास!

जितनी बार दौड़ा है

या हुआ उर्ध्वमुख,

उतनी ही बार उसे—

खींच लायी है धरती की माया।

उस उम्र को अब छू नहीं सकते...

पर पलपल चलता तुम्हारे ही साथ

छाया बनकर, का' बनकर—

और भी अंतरंग बनकर!

धरती—

इस कोने से उस कोने तक

बड़ी हो चुकी;

उसकी सीमा और सरहदें

उसके हृदय के साथ...

दुबले से दुबला होता जाता है

कलंकित चाँद सा हर पल।

उस पर—

दुनिया भर की नारिकवियों का

श्राप, अधलिखी कविताओं का;

कविता को पूरा करने को

दो कुछ वक़्त उसे—

उसके जातक में साथ साथ

बुद्धादित्य और कालसर्प योग!

वह चंद्रलग्ना नारी...

इसी से शायद श्राप के चंगुल से

कभी निकल नहीं पाई।

स्रोत :
  • पुस्तक : समकालीन ओड़िआ कविता (पृष्ठ 95)
  • रचनाकार : प्रवासिनी महाकुड़
  • प्रकाशन : भारतीय साहित्य केंद्र
  • संस्करण : 2013

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