चार कविताएँ

chaar kawitayen

ओम प्रभाकर

ओम प्रभाकर

चार कविताएँ

ओम प्रभाकर

 

एक

साल में चार कविताएँ भी बहुत होती हैं
बशर्ते बारिश वक़्त पर हो
मार्च-अप्रैल में तिनके ढोती चिड़िया की
पहाड़ मेहनत अकारथ न जाए
घोंसले हों सफल 
और बैल की नाँद भरी रहे
टपकती रहे छत लेकिन गिरे नहीं
और राखी के लिए मायके जाती बिटिया
अस्पताल, थाने या बीहड़ों में घिरे नहीं
तो साल में चार कविताएँ बहुत होती हैं।

कविताएँ जहाँ होती हैं
उस ज़मीन पर होती हैं वारदातें
और जलवायु में ऋतुएँ
वारदातों में लिथड़ी हुई ऋतुएँ
साल में चार कविताएँ भी दे दें
आँकड़ों से मुक्त तो बहुत हैं।

दो

इधर बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं...
कुछ दिनों तो 
लाचार पेट की बीमारी रही।
और फिर अगले कुछ दिनों
बीमार देश की लाचारी रही।
मतलब, यों ही
कहीं न कहीं व्यस्त रहा।
या फिर
कविता के न होने या
दुनिया के लगातार बहुत ज़्यादा
होने से त्रस्त रहा
जब भी कभी कोशिश की
कविता की 
तो दुनिया और
दुनिया की 
तो कविता
कविता और दुनिया मुझे
अक्सर रू ब रू खड़ी मिली और
मेरा हाथ जिसकी भी पीठ पर हुआ
अहा! क्या मज़ा है!! कि वही
(कविता हो या दुनिया) 
नाली में औंधे मुँह पड़ी मिली
और मैं
शशोपंज में आकंठ कि अब?
कविता को लूँ
और दुनिया को छोड़ूँ?
या दुनिया को उठाऊँ
और कविता से मुँह मोड़ूँ?
लेकिन, नाली में गिरी चीज़,
वह दुनिया हो या कविता या मेंढकी
ऊपर कहाँ आती है?
हाँ उठाने वाले पर
कुछ छींटे ज़रूर डालती है!
और ऐसे ही लोगों को 
कविता
और दुनिया
ज़िंदगी भर सालती है।

तीन

लगता है खोपड़ी में भूसा है
फिर चारों तरफ़ देखता हू
और पाता हूँ कि
खोपड़ी ही भूसे में है
यह एक दृश्य है :
शरीर पूरा संसार में है और
खोपड़ी भूसे में।

भूसे में खोपड़ी सोचती है भूसा
भूसे में आँखें देखती हैं भूसा
भूसे में नाम सूँघती है भूसा
भूसे में मुँह कहता है भूसा
भूसे में कान सुनते हैं भूसा

खोपड़ी आँख नाक मुँह और
कानों का एक संसार है
जो भूसा है।

और शरीर
खोपड़ी आँख नाक मुँह और
कानों से रहित पूरा शरीर
संसार में है

यह एक बड़ा-सा
घूमता हुआ दृश्य है

चार

तुम किसे मार रहे हो मूर्ख!
पहले देख तो लो कि
कुछ बचा है बाक़ी उसमें
जो जीवित हो

उसका शरीर क्या दृश्य है?
उसकी जेबें क्या स्वस्थ हैं?

वह रामभरोसे है
एक जन
जो इस जनतंत्र में
लगातार तैंतीस वर्षों से
खोजा जा रहा।
लेकिन मिल नहीं पा रहा है।

दरअस्ल, हो यह रहा है कि
लाइन बढ़ती जा रही है और
वह पीछे धकिलता जा रहा है।

उसे मरने में एतराज़ नहीं है।
सवाल उसका नहीं 
तुम्हारा है
कि क्या तुम वास्तव में
उसी को मारना चाहू रहे हो?

या जिसको मारना चाह रहे हो
उस तक न पहुँच पाकर
किसी को भी मारना चाह रहे हो?
अरे, यह ख़ाली थैला उर्फ़
रामभरोसे तो
तुम्हारे बग़ल के घर से निकलकर
तुम्हारे साथ ही चलकर
यहाँ तक आया है।

माना जा सकता है कि 
ग़लत नहीं है
तुम्हारा मारना
लेकिन, जाहिल!
पहले देख तो लो कि
क्या सही है तुम्हारा
असली निशाना!

स्रोत :
  • पुस्तक : साक्षात्कार 101-103 (पृष्ठ 53)
  • संपादक : सोमदत्त
  • रचनाकार : ओम प्रभाकर

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