Font by Mehr Nastaliq Web

चार कविताएँ

chaar kawitayen

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

दुर्गाचरण परिड़ा

अन्य

अन्य

दुर्गाचरण परिड़ा

चार कविताएँ

दुर्गाचरण परिड़ा

और अधिकदुर्गाचरण परिड़ा

    पूर्णमिदम्

    आँखों में
    अपनी आयत आँख रख 
    कहा—
    “समझ पाते हो 
    तुम अभी पूरी तरह निःस्व हो!
    कोई नहीं तुम्हारा 
    कुछ नहीं
    कैसे जीओगे?’’
    कहा—
    “मैं हूँ।
    यह घड़ी है।
    और है 
    कोई तो,
    कुछ तो
    प्रेम करने को 
    और फिर क्या चाहिए?”

    पृथ्वी 

    “बता सकोगे 
    क्यों इतनी काम्य है
    यह पृथ्वी?’’
    तुमने पूछा था।
    कहा—
    “क्यों 
    यह पलभर में
    पार्थिव बन जाता अपार्थिव
    मृण्मय बन जाता चिन्मय
    स्पर्श रस बन जाता।
    समय हो जाता समयहीन 
    राधा बन जाती श्याम।
    स्वर बन जाता ईश्वर।
    बन जाता ब्रह्म।
    और कर्म बन जाता लीला।”

    ईप्सा 

    “बता सकोगे 
    कौन बना देता 
    तुम्हें सुंदर
    शुभ करता 
    शांत करता?”
    पूछा था।
    बताया—
    “तुम्हारी इच्छा 
    सब सुखी रहें!”

    आत्मा के होंठ 

    “कई बार 
    लगता है— 
    मैं मृत हूँ
    कैसे जानूँ कि 
    जीवित हूँ?”
    पूछा था।
    बताया—
    “सद्य मृत हो तुम 
    जब तक 
    उन्मुख होते तुम्हारे होंठ 
    चुंबन के लिए।
    देने के लिए
    लेने के लिए।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 118)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : दुर्पगाचरण परिड़ा
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए