बूढ़े बच्चे

buDhe bachche

अशोक चक्रधर

अशोक चक्रधर

बूढ़े बच्चे

अशोक चक्रधर
एक सर्वे में पाया गया है कि भारत में सबसे ज़्यादा समझदार बच्चे जामा मस्जिद, पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में रहते हैं। जानकर हैरानी-सी होती है कि जिस इलाक़े में न शिक्षा का उचित प्रबंध है, न बेहतर जीवन-स्तर, वहाँ यह कैसे संभव है? इन बच्चों के बारे में कहावत है कि ये पैदा होते ही गलियों में निकल आते हैं। तंग गलियों की गतिमय ज़िंदगी इनके लिए स्कूलों का काम करती है और तरह-तरह के पेशों में लगे हुए ये बच्चे इतने अनुभवी हो जाते हैं कि अन्य बच्चे नहीं हो पाते। एक दूसरी बात—बच्चों के एक प्रकाशक मित्र का व्यावसायिक नारा है—‘हमारी किताबें आठ साल से अस्सी साल तक के बच्चों के लिए हैं।’ उन प्रकाशक-मित्र से मैंने यों ही कहा—“बंधुवर! हमारे देश में यदि अस्सी साल के बच्चे हैं तो आठ साल के बूढ़े भी हैं।” ‘बूढ़े बच्चे’ कविता की शुरुआत यहीं से हुई।

गलियों से गले मिलती गलियाँ हैं
गलियाँ ही गलियाँ हैं
गलियाँ दर गलियाँ हैं,
गलियों में महकती हुई
पूरी एक दुनिया है।
गली हाफ़िज़ बन्ने वाली
गली हकीमजी की
गली सुर्ख़पोशां वाली
गली पीर मुर्ग़े वाली
गली मीर क़ासिमजान
गली मैगज़ीन वाली
गली मीरदर्द वाली
गली गुल पहाड़ी इमली
गली गदहे वाली
गली बजरंगबली 
गली या अली वाली

गर्मी वाली, जाड़े वाली
गली है अखाड़े वाली।

गलियाँ ही गलियाँ हैं
गलियों से गले मिलती गलियाँ हैं
गलियों में महकती हुई
पूरी एक दुनिया है।

इस गली का हाथ थामेम दूजी गली
चली गई, उस गली में गले मिली 
उस गली ने इस गली के पैर छुए
इस गली ने उस गली के कान पकड़े
तीसर गली ने चौथी गली के सिर पर
हाथ फेरा।
पाँचवीं ने पहली का
फूला हुआ पेट ही टटोल लिया
यह गली अगली के
घुटने के दर्द पर बँध गई
और ख़त्म हो गई
और ये है कि
सीना चीरे, माथा चूमे
हाथ भी मिलाती हुई
निकल गई बहुत दूर
कई और गलियों से
चितली क़बर के बाज़ार में सौदा लेने।

तो गलियों के सिर, माथे गर्दन,
हाथ, पैर, पेट, पहुँचे में
कूँचे हैं, छत्ते हैं,
खिड़की हैं, हवेली हैं,
आलान, वालान, मारान सहेली हैं।
कूँचा नाहर ख़ाँ का, कूँचा पंडिज्जी का
कूँचा नाहिरयान और कूँचा पातीराम
कटरा मशरूआना, कटरा बुलबुलख़ाना
छत्ता चुहिया मेम का
तिराहा बैरम ख़ाँ का
हवेली हैदर कुली
पत्थर वाला, लाल कुआँ
कमरा बंगश, शाहगंज
खिड़की तफ़ज़्ज़ुल की
फाटक डिप्टी सुल्तान 
शेर अफ़गन बारादरी 
चूड़ीवालान भी है
बल्लीमारान भी है
सुईवालान भी है
टोकरी वालान भी है
गली गुल गढ़ैया है
गली शाहतारा है।
ग़र्ज़ ये कि गलियाँ हैं
गलियाँ ही गलियाँ हैं
गलियों में महकती हुई
पूरी एक दुनिया है।

गलियों में बच्चे हैं
बच्चे ही बच्चे हैं
बच्चे दर बच्चे हैं
बच्चों में बँटे हुए बच्चे हैं,
तथाकथित बच्चों से
कटे हुए बच्चे हैं।

बच्चे क्यों कहें इनको?
बच्चे ये जवान हैं
बच्चे ये बूढ़े हैं,
ज़िंदगी की इत्र-सेंट 
ख़ूशबू नहीं हैं ये
ज़िंदगी के घूरे हैं
ज़िंदगी के कूड़े हैं
बच्चे ये जवान हैं
बच्चे ये बूढ़े हैं।

जिल्दसाज़, करख़नदार
फेरीवाले, चूड़ीवाले
फलवाले, मालिशवाले
ज़रदोज़ी कढ़ाई वाले
भिश्ती हैं, दर्ज़ी हैं
पंसारी, नाई हैं
खींच रहे गाड़ी हैं
या फिर कबाड़ी हैं
वरक कूटते हैं ये, मिठाई भी बनाते हैं
बावर्ची हैं, दिन-भर रोटियाँ पकाते हैं।

ये बच्चा इंक-बॉय 
ये बच्चा पेपर-बॉय
ये रिक्शा खींचता है
घर-भर को सींचता है।

वह जो मोटे-मोटे ग्रंथों पर
संतों की बानी पर, क़िस्सा-कहानी पर
इतिहास-भूगोल, गीता-क़ुरान पर
अंकगणित, बीजगणित, ज्ञान-विज्ञान पर
गोंद-लेई-गत्ते से
जिल्दें चढ़ाता है,
दिन-भर की मेहनत के बाद क्या पाता है?
सुबह से शाम तक काग़ज़ मोड़े है,
यही उसके ज़िंदगी का आख़िरी मोड़ है,
यही उसके अतीत का घटाना है
यही उसके भविष्य का जोड़ है।
और वह जो लीथो पर 
इनके या उनके भाषणों की
ख़बर वाला,
लाल-नीले रंगों में
पोस्टर निकालता है
वो ख़ुद लाल-नीली स्याही से पुता 
पोस्टर बना खड़ा है
क्या आपने कभी
इस पोस्टर को पढ़ा है?

वह जो काटता है, वह जो सिलता है
वह जो कूटता है, वह जो पीसता है
वह जो मढ़ता है, वह जो चढ़ता है
वह जो ढोता है
वह जो इस सबके बावजूद
रोता नहीं है लेकिन
काम करता है
पूरी नींद सोता नहीं है लेकिन
वो कोमल फूल-सा नहीं है, माफ़ करना
वो रंगीन सपना भी नहीं है, माफ़ करना
उसको अपने आप पर भरोसा है,
उसका कोई अपना नहीं है, माफ़ करना।

खेल के मैदान नहीं हैं,
कारख़ाने और कोठियाँ हैं सिर्फ़
खिलौने और टॉफ़ियाँ नहीं हैं
मेहनत की रोटियाँ हैं सिर्फ़।

वो बाप के लिए 
हकीम से दवाई लाता है।
दो दिन की कमाई से
बहन के लिए दुपट्टा लाता है।

वो तीन पैसे में
दादी के हाथों को जलता देख
चिमटा ख़रीद कर लाता है।
खिलौनों के लिए नहीं ललचाता है।
नैतिक शिक्षको,
देश के रक्षको,
इस फ़सल को
और नष्ट होने से पहले बचाओ
और 
समय से पहले हो गए
इन बूढ़ों को
बच्चा बनाओ!
स्रोत :
  • पुस्तक : हास्य-व्यंग्य की शिखर कविताएँ (पृष्ठ 43)
  • संपादक : अरुण जैमिनी
  • रचनाकार : अशोक चक्रधर
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण पेपरबैक्स
  • संस्करण : 2013
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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