बोलने और न बोलने के बीच

bolne aur na bolne ke beech

पूनम सोनछात्रा

पूनम सोनछात्रा

बोलने और न बोलने के बीच

पूनम सोनछात्रा

बोलने के हज़ार दुःख थे

बोलने के असीमित

बावजूद इसके हमने बोलना चुना

बाहर के शोर की बनिस्बत

अंदर का तूफ़ान

तन, मन और पूरे जीवन को

छिन्न-भिन्न करने के लिए पर्याप्त था

लेकिन हम अंदर के सुनामी के मध्य

बाहर किसी अटल छायादार वृक्ष की तरह

चेहरे पर मुस्कान लिए

ख़ुश रहने का शानदार अभिनय करते रहे

वितृष्णा से देखते रहे

डिओड्रेंट की ख़ुशबू से पागल होती

और रंग-रूप, देहयाष्टि निखारकर

मर्दों की लुभाती

औरतों के विज्ञापन

यह सब केवल फ़िल्मों में ही होता है

पसीने से भीगी देह

रसोई के मसालों की गंध में

तलाशती है एक नक़्शा

और मंज़िल मिलने के पहले ही थककर चूर हो जाती है

दो इंच की दूरी के मध्य

सिमट जाते हैं सैकड़ों प्रकाशवर्ष

हम चुप्पी में ली जाने वाली सिसकियों में माहिर हैं

कामना से इज़्ज़त नहीं मिलती

और कुंठा को तोड़ने से कहीं अधिक ज़रूरी है

सबसे आख़िर में ही सही...

लेकिन पेट की भूख तोड़ना

प्रेम का बदल माँग में खिंची लक्ष्मण-रेखा है

और देह का बदल ज़िम्मेदारियाँ

चाह का बदल सदैव आँसू ही होते हैं

हम कामनाओं को कविताओं

और किताबों में खोजने वाले लोग हैं

धर्म, संस्कृति और आध्यात्म

हमारे सजग प्रहरी हैं

हमारा चरित्र हमारा सबसे बड़ा आभूषण है

जिसे हमारे अलावा हर कोई परिभाषित कर सकता है

हमारी नियति अहिल्या बनकर राम की प्रतीक्षा करना है

सीता बनकर अपनी क़ब्र में स्वयं जाएँगे

तभी पूजे जाएँगे

द्रोपदी होना चुनेंगे तो केवल 'महाभारत' होगा

लेकिन जाने क्यों

ख़ुद को मेरा प्रेमी कहने वाला एक शख़्स

आजकल अक्सर मुझसे कहता है :

'बोलने से सब होता है'

स्रोत :
  • रचनाकार : पूनम सोनछात्रा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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