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भोजपुरी

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सिद्धेश्वर सिंह

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और अधिकसिद्धेश्वर सिंह

    जिह्वा का वह पहला आड़ोलन

    गले से फूटी वह पहली पुकार

    कानों में दाख़िल हुई वह पहली ध्वनि

    नथुनों में बसी वह पहली सुवास

    भाषा अपनी-सी वह पहली जो बनी माँ शब्द का पर्याय।

    और ढंग से भी बोलते होंगे दुनिया के लोग

    बेमानी और बेतुका रहा यह सवाल वर्षों तक

    इसी की धूल सनी गोद में गुज़रा बचपन

    इसी की सीधी राह चलकर पास आया कैशोर्य

    और जब धीरे-धीरे भीगने लगी रेख

    एक दिन समझाया कुछ समझदारों ने

    कि एक इसी चीज़ को बिसार कर

    जीवन-समर में हुआ जा सकता है एक सफल मनुष्य।

    तबसे घूम रहा हूँ वन-वन

    नाप रहा हूँ डगर-डगर

    डोल रहा हूँ नगर-नगर

    जगत के इस जगमग मेले में खोए हुए बालक-सा

    भटक रहा हूँ कंठ में भरी हुई रुलाई लिए

    कहना चाहता हूँ कुछ

    शब्द और वाक्य में फूटने को दौड़ पड़ता है कुछ और।

    यह कैसा पहरा है मेरी वाणी पर

    तनी हुई है अदृश्य प्रत्यंचाएँ चहुँ ओर

    दे दिया गया हूँ किसी युद्ध के मोर्चे पर निहत्था

    दुश्मनों की पाँत में खड़े बताए जाते हैं स्नेही स्वजन

    मैं उन्हें पुकारता हूँ किसी अनजानी शब्दावली में

    और दूर होती जाती हैं अपनी परछाइयाँ हर बार।

    चुप हूँ पर आए जा रही हैं हिचकियाँ लगातार

    मन में रह-रह कर उठ ही जाती है एक हूक

    यह कौन-सी भाषा है

    आख़िर क्या है इसका नाम!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सिद्धेश्वर सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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