भीष्म प्रतिज्ञा

bheeshm prtigya

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भीष्म प्रतिज्ञा

मैथिलीशरण गुप्त

विलोक शोभा विविध प्रकार,

जी में सुखी होकर एक बार।

यशोधनी शांतनु भूप प्यारे,

थे घूमते श्रीयमुना किनारे॥

वहाँ उन्होंने अति ही विचित्र,

आघ्राण की एक सुगंध मित्र!

थी चित्तहारी वह गंध ऐसी,

पाई कई पूर्व कभी जैसी॥

भूपाल ऐसे उससे लुभाने,

शरीर की भी सुधि वे भुलाने।

चली प्रमोदार्णव में समाने,

पता-ठिकाना उसका लगाने॥

देखी उन्होंने तब एक बाला,

जो कांति से थी करती उजाला।

मिलिंद ने फुल था विशाला,

मानों निहारी अरविंद-माला॥

कैवर्त्त-कन्या वह सुंदरी थी,

बिंबाधरी और कृशोदरी थी।

मनोभिरामा मृगलोचनी थी,

मनोज-रामा-मद-मोचनी थी॥

सुवर्ण-गात्रोद्भव गंध द्वारा,

प्रसार कोसों निजनाम प्यारा।

प्रत्यक्ष मानों वह थी दिखाती—

सुवर्ण में भी मृदु गंध आती॥

तत्काल जी को वह मोह लेती,

थी दर्शकों को अति मोद देती।

विलोक तद्रूप विचित्र कांति,

थी दूर होती सब शांति दांति॥

यों देख शोभा उसकी गंभीर,

तत्काल भूपाल हुए अधीर।

क्या देख पूर्णेंदु नितांत कांत,

कभी रहा है सलिलेश शांत?

पुनः उन्होंने उससे सकाम,

हो मुग्ध पूछा जब नाम-धाम।

बोली अहा! सो प्रमदा प्रवीणा,

मानों बजी मंजुल मिष्ट वीणा॥

“हो आपका मंगल सर्व काल,

जानों मुझे सत्यवती नृपाल!

नौका चलाती सुकृतार्थ-काज,

पिता महात्मा मम दासराज॥”

थी मिष्ट वाणी उसकी विशेष,

हुआ अतः और सुखी नरेश।

रसाल-शाखा पिक-गान-संग,

देती नहीं क्या दुगनी उमंग?

पुनः उन्होंने उसके पिता से,

माँगा उसे जाकर नम्रता से।

किंतु प्रतिज्ञा अति स्वार्थ-सानी,

यों पूर्ण चाही उसने करानी॥

“संतान जो सत्यवती जनेगी,

राज्याधिकारी वह ही बनेगी।”

कामार्त थे यद्यपि वे, तथापि,

की प्रतिज्ञा नृप ने कदापि॥

लौटे अतः सत्यवती बिना ही,

पाया उन्होंने दु:ख चित्त-दाही।

पावें व्यथा क्यों सदा अनंत,

अकार्य तो भी करते संत॥

मंदस्मिता, योजन-गंध-दात्री,

कैवर्त्त-पुत्री वह प्रेम-पात्री।

कैसे मुझे हा! अब प्राप्त होगी?

क्या हो सकूँगा उसका वियोगी?

प्राणांतकारी उसका वियोग,

हुआ मुझे निश्चय काल-रोग।

अवश्य ही मैं उससे मरूँगा,

किंतु वैसा प्रण मैं करूँगा॥

वैसी प्रतिज्ञा कर दु:ख खोना,

पुत्रघ्न मानों जग बीच होना।

क्या तात देवव्रत का रहा मैं,

जो मान लूँ धीवर का कहा मैं?

चाहे मरूँ मैं दु:ख से भले ही,

चाहे बनूँ भस्म बिना जले ही।

स्वीकार है मृत्यु मुझे घनिष्ट,

किंतु देवव्रत का अनिष्ट॥

है पुत्र देवव्रत वीर मेरा,

गुणी, प्रतापी, रणधीर मेरा।

वही अकेला मम वंश-वृक्ष,

पुत्र लाखों उसके समक्ष॥

सारे गुणों में वह अद्वितीय,

आज्ञानुकारी सुत है मदीय।

गाऊँ कहाँ लों उसकी कथा मैं,

होने दूँगा उसको व्यथा मैं॥

असह्य ज्यों सत्यवती वियोग,

त्यों इष्ट देवव्रत-राज्य-भोग।

किंतु दोनों सुख ये मिलेंगे,

प्राण मेरे मुरझे खिलेंगे॥

कैवर्त्त से सत्यवती सही मैं,

लूँ छीन, चाहूँ यदि आज ही मैं,

परंतु ऐसा करना अनीति,

अन्याय दुष्कर्म अधर्म-रीति॥

हो क्यों मज्जीवन आज नष्ट,

दूँगा प्रजा को परंतु कष्ट।

सदा प्रजा-पालन राज-धर्म,

कैसे तजूँ मैं यह मुख्य कर्म?

हे पंचबाण स्मर, काम, मार,

तू बाण चाहे जितने प्रहार।

अन्याय मैं किंतु नहीं करूँगा,

स्वत्त्व देवव्रत का हरूँगा॥”

यों नित्य चिंता करके नरेश,

चित्त में पाकर शांति-लेश।

ग्रीष्मार्त-पद्माकर के समान,

होने लगे क्षीण, दुखी महान॥

भूपाल की व्याकुलता विलोक,

कुमार गांगेय हुए सशोक।

अत: उन्होंने नृप-मंत्री द्वारा,

जाना पिता का दु:ख-हेतु सारा॥

“स्वयं दुखी तात हुए मदर्थ,

वात्सल्य ऐसा उनका समर्थ।

मैं किंतु ऐसा अति हूँ निकृष्ट,

जो देखता हूँ उनका अरिष्ट!”

यों सोच देवव्रत स्वार्थ त्याग,

प्यारे पिता के हित सानुराग।

तुरंत मंत्री-वर के समेत,

गए स्वयं धीवर के निकेत॥

आया उन्हें धीवर गेह देख,

अभ्यर्थना की उनकी विशेष।

सवंश पूजा करके तुरंत,

सौभाग्य माना अपना अनंत॥

सप्रेम बोला तब राज्य-मंत्री—

माँगी सुता शांतनु-शोक-हंत्री।

परंतु हा! धीवर ने मानी,

चाही प्रतिज्ञा वह ही करानी॥

अमात्य ने ख़ूब उसे मनाया,

अन्याय अर्थार्थ तथा लुभाया।

किंतु माना जब दास एक,

जी में हुआ रोष उसे कुछेक॥

परंतु सो कोप अयोग्य जान,

गांगेय ने शांत किया प्रधान।

पुनः स्वयं वे निज वंश-केतु,

बोले पिता के दुःख नाश हेतु॥

“प्यारे पिता के हित दासराज!

दीजे स्वकन्या तज सोच आज।

हैं कामनाएँ जितनी तुम्हारी,

हैं वे मुझे स्वीकृत मान्य सारी॥”

पुनः उन्होंने कर को उठा के,

औदार्य नि:स्वार्थ-भरा दिखा के,

प्यारे पिता के हित मोद पा के,

की यों प्रतिज्ञा सबको सुना के॥

“है नाम देवव्रत सत्य मेरा,

है सत्य का ही व्रत नित्य मेरा।

अतः पिता के दुःख नाशनार्थ,

मैं हूँ प्रतिज्ञा करता यथार्थ॥

मैं राज्य की चाह नहीं करूँगा,

है जो तुम्हें इष्ट वही करूँगा।

संतान जो सत्यवती जनेगी,

राज्याधिकारी वह ही बनेगी॥

विवाह भी मैं कभी करूँगा,

आजन्म आद्याश्रम में रहूँगा।

निश्चिंत यों सत्यवती सुखी हो,

संतान से भी कभी दुखी हो॥

जो चाहते थे तुम दासराज,

मैंने किए सो प्रण सर्व आज।

जो-जो कहो और वही करूँ मैं,

व्यथा पिता की जड़ से हरूँ मैं॥”

ऐसी प्रतिज्ञा सुन के कठोर,

कहा सुरों ने तक भीष्म—घोर।

हुए तभी से वह भीष्म नामी,

अपुत्र भी इच्छित लोक गामी॥

स्रोत :
  • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 63)
  • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
  • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
  • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
  • संस्करण : 1994

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