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केन किनारे

ken kinare

अजित पुष्कल

अन्य

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अजित पुष्कल

केन किनारे

अजित पुष्कल

और अधिकअजित पुष्कल

    कब से बैठा केन किनारे

    देख रहा हूँ हरे-भरे दो फूल

    कगारें ऊँची-ऊँची

    फैली-फैली रेत

    हरे खेतों के विरवे

    ढलते सूर्यदेव की किरणें

    निज में धोले

    सन्न मारकर बहता पानी।

    कपिल गगन पर

    श्वेत-शांत पंखे फैलाए

    उड़े जा रहे कुछ पक्षीगण

    ये चरवाहे, जो मनचाहे

    खींचे लेते हैं मेरा मन।

    लहर-लहर पुरवइया आती

    धूल भरे गंदे बालों को सहलाती है

    ढीले-ढाले इन वस्त्रों में

    बरबस लुकी-छिपी जाती है।

    तुम्हें कौन-सा धवल हिमालय

    रोक लिए है,

    उसे फोड़ दो

    जात-पाँत की जो ज़ंजीरें

    जकड़ लिए हों

    उन्हें तोड़ दो।

    मैं काग़ज़ के टुकड़ों पर लिख

    लहरों के हाथ निमंत्रण भेज रहा हूँ

    मेरे मन जो प्रेम जगाती

    हवा बसंती

    पास तुम्हारे भेज रहा हूँ।

    इन्हें वापस लौटा देना

    वरना बस्ती की दूषित गलियों में

    परदे के पीछे ज़हरीले

    बंद द्वार में सड़ जाओगी।

    सोच रहा हूँ

    अगर कहीं हम

    केन नदी की लहरें होते

    ऊँची-नीची घाटी में भी

    ठहरे होते

    कभी हम फिर

    अपने दुख का रोना रोते

    मिट्टी के मिट्टी नहीं

    कहीं फिर सोना होते।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अजित पुष्कल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए शिवम चौबे द्वारा चयनित

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