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बंद घड़ी

band ghaDi

सुघोष मिश्र

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सुघोष मिश्र

बंद घड़ी

सुघोष मिश्र

और अधिकसुघोष मिश्र

    एक शहर के सरकारी अस्पताल के कमरे के भीतर

    शीशे से लिपटा हुआ

    उसका दम घुट रहा है

    उसकी मिनट और घंटे की सुईयाँ

    चींटियों के खाने से रहे शेष

    किसी घायल पक्षी के पंजे जैसी शिथिल पड़ी हैं—

    किसी दुविधा की तरह

    एक विचार के मूल से बँधी किंतु

    उसे दो दिशाओं में खींचती हुई,

    उसकी सेकेंड की सुई

    किसी बीत चुके समय की हथेली थाम

    उठ–उठकर गिरती हुई

    तड़फड़ा रही है।

    सारा रक्त निचुड़ जाने के बीच

    जैसे हलाल हुए मुर्ग़े की देह हिलती है

    जैसे सशंकित व्यक्ति की आत्मा सिहरती है

    एक अधजली स्त्री की छाती चिहुँकती है जैसे

    और कातर दृष्टि से ताकता हुआ

    उसका पति झटकता है हाथ

    नीचे का पाँव खो देने के बाद

    एक अचेत किशोर का घुटना थरथराता है जैसे

    और लड़खड़ाती है उसकी बहादुर माँ की आवाज़—

    वह अकेली

    सेकेंड की

    हल्की पतली सुई

    काँपती हुई

    अपने आस-पास उपस्थित सबकी

    संयुक्त जिजीविषा की तरह

    लड़ रही है जड़ता और मृत्यु से।

    चीर-फाड़ की असीम यातना के बाद

    तीन दिनों की मेरी असह्य पीड़ा को

    चिकित्सकों, दर्द निवारकों और निश्चेतकों

    ने नहीं सहलाया किया केवल

    बल्कि उस ठहरती हुई घड़ी ने भी

    जिलाए रखी यह उम्मीद

    कि अब भी दस बजने में हैं पैंतीस मिनट शेष…

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुघोष मिश्र
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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