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बैगैरत ख़्वाब

baigairat khvaab

गुंजन उपाध्याय पाठक

अन्य

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गुंजन उपाध्याय पाठक

बैगैरत ख़्वाब

गुंजन उपाध्याय पाठक

और अधिकगुंजन उपाध्याय पाठक

    उमर की कोख़ से पनपती है

    ...दरकनें...!

    और दरकनों के पोषण से उग आती है

    ...उदासियाँ...!

    ठीक-ठीक कोई दुःख नहीं है

    कि कहा जाए तुमसे

    या किसी से भी...

    बस मन है,

    रो पड़ूँ चिल्लाते हुए...

    नया कहाँ है कुछ?

    नए के पीठ पर टँगी हुई है

    नील भरी रौशनाई की तमाशीन...

    नया पुरानी आकाँक्षाओं के टुकड़े लादे

    घसीटता हैं ख़ुद को, आहिस्ता-आहिस्ता

    आहिस्ता-आहिस्ता ही आती है मौत

    और इस तरह मर चुके लोगों के गले पर नहीं होते

    दुखों के पंजों के निशान

    इश्क़ की दावेदारियों में तुम्हीं नहीं थे

    मैने अपनी सुपुर्दगी

    कुछ बेग़ैरत ख़्वाबों के नाम की थी

    खनकते हुए ज़ंजीरों में जकड़ा रहा था जिस्म

    और रूह तो कबकी सुपुर्दगे ख़ाक

    कर चुकी थी, मैं...!

    स्रोत :
    • रचनाकार : गुंजन उपाध्याय पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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