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बचती है अंत में केवल ध्वनि

bachti hai ant mein keval dhvani

फरूग़ फरूख़ज़ाद

अन्य

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फरूग़ फरूख़ज़ाद

बचती है अंत में केवल ध्वनि

फरूग़ फरूख़ज़ाद

और अधिकफरूग़ फरूख़ज़ाद

    क्यों रुक जाऊँ मैं, क्यों?

    पक्षी चले गए

    खोजने वह दिशा नीली

    क्षितिज खड़ा है सर के बल,

    फटकारे-सा फहरता,

    दृष्टि पथ में घूम रहे हैं

    चमचमाते नक्षत्र।

    पृथ्वी अपनी उड़ान में

    छू लेती है दुहराव

    और हवा के गहरे कुँए

    बन जाते हैं संवादी सुरंग।

    दिन एक लंबा चौड़ा

    पसारा है जो

    अख़बारी कीड़ों

    के फुद्दू दिमाग़ों

    में नहीं समाता।

    क्यों रुक जाऊँ मैं?

    सड़क जीवन की नस नाड़ियों से

    होकर गुज़रती है।

    चाँद के अंडकोष जहाज़ों

    वाले मौसम की तासीर,

    ख़त्म कर देती है

    बेईमान कोशिकाओं को।

    सूर्योदय के बाद वाले

    रासायनिक समय में अब

    बची है केवल

    ध्वनि।

    ध्वनि जो

    खींचेगी समय के कणों

    को अपने पास

    क्यों रुक जाऊँ मैं?

    दलदल आख़िर और क्या

    हो सकता है

    सिवाए बेईमान कोशिकाओं के घर के

    फूली लाशों से पटा है

    मुर्दाघर का दिमाग़

    नामर्द छिप गया है

    अँधेरे में

    अपनी नामर्दी के

    और जब

    घास का वह कीड़ा तक

    बोल सकता है...ओह,

    क्यों रुक जाऊँ, मैं?

    व्यर्थ है

    संखिया शब्दों की मदद।

    वह नहीं बचा पाएँगे

    एक नीच विचार को

    अतल में गिरते चले जाने से।

    मैं दरख़्तों के ख़ानदान से

    रखती हूँ ताल्लुक़—

    बासी हवा में साँस लेना

    मुझे उदास करता है।

    एक चिड़िया ने

    मरते हुए कहा था मुझसे

    उड़ान को

    सुपुर्द कर दो स्मृति के

    शक्तियों का चरम

    संधि में है।

    सूर्य के स्वर्णिम सिद्धांत

    से जुड़कर ही,

    प्रकाश की समझ में

    ढलकर ही, संभव है

    पवनचक्कियों का ढह जाना।

    क्यों रुक जाऊँ मैं?

    अपने सीने में

    भींचती हूँ मैं

    गेहूँ की अधपकी बालियाँ

    उन्हें पिलाने दूध।

    ध्वनि, ध्वनि, ध्वनि मात्र।

    पानी के बहने की अधमरी इच्छा

    की ध्वनि

    तारों के उजास की

    ध्वनि पृथ्वी की दीवार पर,

    अर्थ शुक्राणुओं के बँधने

    की ध्वनि,

    और साझा प्रेम

    के मन का अनंत प्रसार—

    ध्वनि, ध्वनि, ध्वनि मात्र

    बचती है।

    बौनों के देस में

    तुलना की कसौटियाँ

    चक्कर काटती रही हैं सदा से

    शून्य के भँवर पथ में।

    क्यों रुक जाऊँ मैं?

    मैं मानती हूँ उन

    चार तत्वों को

    और अपने मन का

    संविधान लिखने का ठेका

    अंधों की स्थानीय सरकार

    को सौंपने से करती हूँ इनकार।

    जानवरों के

    जननांगों की घिसटती

    रिरियाहटों से

    मुझे क्या?

    ख़ाली माँसल खोल में

    जीव की हल्की सुरसुराहट से

    मुझे क्या?

    मुझे तो

    फूलों के लहूलुहान वंश ने

    सुपुर्द किया है जीवन के

    क्या तुम, जानते हो?

    फूलों के

    इस लहूलुहान वंश को?

    स्रोत :
    • पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 268)
    • संपादक : वंशी माहेश्वरी
    • रचनाकार : फरूग़ फरूख़ज़ाद
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 2020

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