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औसत-सा जीवन

ausat sa jivan

पल्लवी विनोद

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पल्लवी विनोद

औसत-सा जीवन

पल्लवी विनोद

और अधिकपल्लवी विनोद

    एक औसत से जीवन में चाहतें थोड़ी कम होती हैं

    पूरी हों तो भी ज़िंदगी काटी जा सकती है

    चादर बड़ी करने का सवाल ही नहीं उठता

    पैर समेट लो, हाथ सिकोड़ लो

    मंदिर जाओ, तीरथ जाओ

    इच्छा पाप है, चाह अनैतिक है

    मुँह बंद रखना नैतिक है

    कामना दैहिक है उसे भस्म करो

    पसीना बहाओ, पैसा बचाओ

    भविष्य निधि में डाल दो

    वक़्त-बेवक़्त काम आता है

    कभी-कभी वह वक़्त तमाम उमर

    काट जाता है

    औसत-सी ज़िंदगी को

    औसत से भी कमतर बनाते लोग

    घूमने कहाँ जाते हैं?

    जंगल, नदी, समंदर

    सुंदर हैं, पर महँगे हैं

    ईश्वर सस्ते और भरोसेमंद हैं

    यहाँ उपवास है, जाप है, नमाज़ है

    आधे से ज़्यादा समय यूँ ही बिताना है

    ख़ुद को आध्यात्मिक बताना है

    सत्ता और विपक्ष जानते हैं

    औसत जनता आध्यात्मिक नहीं धार्मिक है

    इसीलिए चुनावों का सबसे बड़ा मुद्दा

    वही चुनते हैं

    औसतन हर इंसान दुःखी है

    हम सबके दुःख को दूर करने वाले बाबा

    अब हाईटेक हो गए हैं

    ए.आई. भी जानता है औसत आदमी

    क्या देखना चाहता है

    क्यों हो इतने कमज़ोर

    इतने साधारण मत बनो

    थोड़ा छकाओ उसे

    तुम्हारे मन की थाह लेने में हो जाए अनुत्तीर्ण

    इतना थकाओ उसे

    ज़िंदगी जीवन से मृत्यु के बीच लिखी कहानी है

    दवात में मनपसंद स्याही भरो

    अपनी लिखावट में लिखो

    कहीं छपे छपे

    इसका महत्त्व नहीं है

    बस तुम्हें औसत नहीं लगनी चाहिए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : पल्लवी विनोद
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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