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कविता

kawita

अनुवाद : नवारुण वर्मा

समीर ताँती

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और अधिकसमीर ताँती

    निकल जाता रोज़ अँधेरा होते ही : कंधे पर ले झोली

    हाथ में लाठी

    टटोलता हुआ सोचा करता : शायद आज ही

    सबसे पहले मैं ही कर लूँगा साक्षात्कार

    बूढ़ा पीपल पहरा देता रहता शवों पर।

    बीच-बीच में छू जाती हवाएँ धीमे से

    मिट्टी की सुवास के साथ

    रात-भर चाँदनी, चाँदनी की माया लिपटी रहती

    गाल पर चेहरे पर ममता-सी

    अँधेरे में नदी-तट पर बैठा पुकारता मैं

    आ...दि...ल

    पर कहाँ, कोई भी तो वापस नहीं आता!

    पहाड़ों से टकराकर मानो बजता रहता अपने ही दिल में

    आ...दि...ल

    सुदूर आकाश में भला वह कौन सिसक रहा,

    पहचानी-पहचानी-सी वेशभूषा में

    शायद मुन्ना है वह अपना ही

    दिल खोल पुकार उठता मैं

    आ...आ...आ...दि...इ...इ...ल

    पर कहाँ, कोई भी तो वापस नहीं आता।

    नज़रों के सामने से निकल जाती उनींदी रात

    पहाड़ों से टकराकर मानों अपने ही दिल में बजता रहता

    आ...आ...आ...आ...दि...इ...इ...इ...ल

    सोचता हूँ : अरसे से नींद में पड़े शायद उसने खाया नहीं

    कुछ भी

    पुकार उठेगा आज ही...अब्बा!!

    ओफ़ अल्लाह!

    रोटी का यह टुकड़ा अगर खिला पाता अपने ही हाथों से...

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1984 (पृष्ठ 28)
    • संपादक : बालस्वरूप राही
    • रचनाकार : समीर ताँती
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1986

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