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गाओ एक बार मेरी प्रिय विहंगिनी!

gao ek baar meri priy vihangini!

रघुनाथ चौधरी

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रघुनाथ चौधरी

गाओ एक बार मेरी प्रिय विहंगिनी!

रघुनाथ चौधरी

मेरी प्रिय विहंगिनी एक बार गाओ।

तुम्हारी अमृतमयी वाणी सुनकर मेरा हृदय शांति से परिपूर्ण हो उठता है।

ललित मधुर स्वर से हे जीवन-तोषिणी गाओ—मेरी प्रिय विहंगिनी—एक बार गाओ॥

जिस स्वर से वन के हिरण मुग्ध हो उठते हैं वैसी ही गीत की लहरें उठाकर मनमुक्त स्वर में गाओ।

तुम्हारा गीत सुनकर मेरे प्राणों को शांति मिले। गाओ मेरी प्रिय विहंगिनी—एक बार गाओ॥

हे वन विहंगिनी सौंदर्य की खान प्रकृति की लीलाभूमि के गंभीर निर्जन वन में,

आनंदोल्लास से वृक्षों की डालियों पर तुम घूमती फिरती हो।

गाओ मेरी प्रिय विहंगिनी—एक बार गाओ॥

कंठ में छत्तीस रागिनियों का समन्वय कर प्यारी विहंगिनी—

तुमने कानन, भूमि, गिरि-गुफा उपवन सिंधु तरंगिनी—

आदि सबको मोहित कर डाला है, अत:

गाओ—मेरी प्रिय

विहंगिनी—एक बार गाओ॥

हे विहंगिनी—क्या तुम्हें स्मरण है कि यमुना तट पर कदंब,

वृक्ष पर बैठकर अपने परचम स्वर में तुमने ब्रजांगनाओं

को प्रेमोत्मादिनी बना डाला है।

गाओ मेरी प्रिय विहंगिनी—उसी स्वर से एक बार गाओ॥

हृदय के प्रति स्तर में शैशव की कथाएँ समाई हुई हैं।

तुम्हारे मधुर गीत ने अतीत स्मृति को जगाकर मानस सरोवर में

आशा-कुमुदिनी को विकसित कर दिया है।

गाओ—मरी प्रिय विहंगिनी—एक बार गाओ॥

मर्त्यवासी मानव को शांति प्रदान करने के लिए विधाता ने

तुम्हारे कंठ में अमृत भरकर,

स्वर्गीय दूत के वश से तुम्हें अपनी—प्रियनिधि बना भेजा है।

गाओ—मेरी प्रिय विहंगिनी—एक बार गाओ॥

हे मानस मोहिनी तुम सरला विहग हो, तुम्हारे गीत सुनकर

मैं मग्न हो जाता हूँ और तल्लीन होकर कुछ गुनगुनाता रहता हूँ—

गाओ—हे प्रिय विहंगिनी—एक बार कोमल स्वर से गाओ॥

संसार की ज्वाला से शरीर जर्जरित हो रहा है।

वीणा की मधुर रागिणी से मुझे सांत्वना नहीं मिल पाती।

तुम्हारे अस्फुट गीत से मृत संजीवनी फूँक दो।

गाओ—हे प्रिय विहंगिनी—मुझे हताश करो॥

तुम शांति का भंडार हो—न तुम्हारा छोटा-सा हृदय थकावट ही जानता है—

और उस दुखी की अनुभूति ही होती है, चूँकि तुम फलों का मधु पीते हुए,

बाग़-बग़ीचों में घूमती फिरती हो।

अत: गाओ—हे प्रिय विहंगिनी—एक बार गाओ॥

प्रियतमे, बताओ कुंज-कुंज में कितने ही रूपों में

किस प्रेमी की प्रशंसा में मिलन-गीत गाती हो—हे मधुरभाषिणी, गाओ—

मेरी प्रिय विहंगिनी—फिर से एक बार गाओ॥

वह ज्ञान-विकासिनी शक्ति मुझे कहाँ से मिलेगी? तुम्हारा

ह्रदय प्रेमरस से परिपूर्ण है। हे विरहिणी, तुम विभु की महिमा

वन-वन में घूम-घूमकर गा रही हो—गाओ एक बार मेरी प्रिय

विहंगिनी गाओ॥

तुम विहंगिनी नहीं हो, बताओ किसकी प्रेमाधीना हो,

किसने तुम्हें अमृत का भार ढोने वाली बनाया है। गाओ—हे प्रिय विहंगिनी—

मुझे उन्हें दिखा दो॥

हे पक्षी, एक बार इस अभागे की बात सुन लो—मुझे

पार्थिव सुख नहीं चाहिए, उनके अभाव से मन में भी मैं दुख का

अनुभव नहीं करूँगा। जहाँ सदा प्रेम की मंदाकिनी

प्रवाहित हो रही हो—वहाँ तक मैं तुम्हारे साथ उड़ चलूँगा॥

स्रोत :
  • पुस्तक : कवि-श्री माला (पृष्ठ 53)
  • रचनाकार : कवि के साथ संपादक-अनुवादक परेश चंद्र शर्मा और लोकनाथ मराली
  • प्रकाशन : राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा
  • संस्करण : 1962

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