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अंतिम चाह

antim chaah

अलेक्सांद्र पूश्किन

अन्य

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और अधिकअलेक्सांद्र पूश्किन

    चाहे चलता हूँ सड़कों पर जिनपर नागरिकों का शोर,

    चाहे चलता हूँ राहों पर जो जाते गिरजे की ओर,

    चाहे बैठूँ वहाँ जहाँ पर यौवन करता है अभिसार,

    मेरे मन के अंदर उठने लगते हैं इस भाँति विचार—

    देखो, कितनी जल्दी बीते जाते है सालों पर साल,

    डाल चुका है, देखो, कितनों को अपने गालों में काल,

    चली जा रही है सब दुनिया यम के पुर को आँखे मूँद,

    देखो, कितनों के पाँवों के नीचे है मंज़िल मकसूद।

    देख रहा हूँ एक पेड़ जो खड़ा सामने तना घना,

    और सोचता हूँ यह युग-युग तक रहने के हेतु बना,

    मैं मृत-विस्मृत हूँगा, इसमें पत्र लगेंगे नए-नए,

    पिता पितामह भी तो मेरे होंगे योंही सोच गए।

    फैला हाथ उठा लेता हूँ गोदी में शिशु ललित, ललाम,

    और कहा करता हूँ उससे, तुमको मेरा विदा-प्रणाम,

    ध्वनित करोगे तुम घर जिसको मैं कर जाऊँगा सुनसान,

    सिलते जाते दिवस तुम्हारे, मेरे होते जाते म्लान।

    प्रति पल, प्रति दिन और प्रति निशा, प्रति सप्ताह और प्रति मास,

    मुझे ध्यान रहता है इसका मौत चली आती है पास,

    औ' पूछा करता अपने में कब पहुँचेगा यह काल

    जबकि गले मेरे डालेगी वह अपनी बाँहों का जाल।

    मेरा अंत कहाँ मुझको बाँधेगा भुज-बंधन में,

    दूर देश में, वन-विदेश में, सागर या समरांगण में,

    या समीप की घाटी कोई मुझको पकड़ बुलाएगी,

    और हरण कर प्राण बदन पर हिम या कफ़न उढ़ाएगी।

    इसकी कुछ परवाह नहीं है, कहाँ छूटता मेरा प्राण,

    कहाँ उसे मिलता है विजड़ित काया के बंधन से त्राण

    लेकिन किसे नहीं होता है अपनी ड्योढ़ी से अनुराग,

    मौत मिलेगी मुझे वही, यदि होगा मेरा ऐसा भाग।

    यही चाहना केवल, मेरी क़ब्रगाह के चारों ओर,

    खेल रहे हों, कूद रहे हों हँसमुख बच्चे हर्ष विभोर,

    और प्रकृति निज आँगन साजे ऐसी छवि से अतुल, अनंत,

    एक बार जिसमें आकर फिर जाना जाए भूल बसंत।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 74)
    • रचनाकार : अलेक्सांद्र पूश्किन
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
    • संस्करण : 1964

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