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अक्र चहार का मक़बरा

akr chahar ka maqbara

एज़रा पाउंड

अन्य

अन्य

एज़रा पाउंड

अक्र चहार का मक़बरा

एज़रा पाउंड

और अधिकएज़रा पाउंड

    मैं तुम्हारी आत्मा हूँ, निकुपतिस्, मैंने निगरानी की है

    पिछले 50 लाख वर्षों से, और तुम्हारी मुर्दा आँखें

    हिलीं नहीं, मेरे रति-संकेतों को समझ सकीं

    और तुम्हारे कृश अंग, जिनमें मैं धधकती हुई चलती थी,

    अब मेरे या अन्य किसी अग्निवर्णी वस्तु के स्पर्श से धधक नहीं उठते!

    देखो तुम्हारे सिरहाने तकिया लगाने को घास उग आई है

    और चूमती है तुम्हें अपनी अगणित पल्लव-जिह्वाओं से

    पर मैं तुम्हारे चुंबनों से वंचिता हूँ

    मैं दीवार के स्वर्णाक्षर पढ़ चुकी हूँ

    और उनके प्रतीकों पर अपनी चिंतना थका चुकी हूँ

    और इस मक़बरे में अब कोई भी नयापन शेष नहीं रहा

    मैंने तुम्हारा बहुत ख़्याल रखा है। देखो मैंने मद्य-मंजूषाओं के

    मोम चिह्न नहीं तोड़े कि

    तुम कहीं जाग कर मदिरा की एक घूँट पीना चाहो

    और तुम्हारे समस्त वस्त्रों की शिकनें मैं ठीक करती रही

    मैं कैसे भूलूँ निर्मोही!

    कुछ ही दिनों पहले मैं नदी थी...

    नदी? हाँ; तुम कितने किशोर थे

    और तुम पर तीन आत्माएँ मँडरा रही थीं

    और मैं आई

    और बहती हुई तुममें प्रविष्ट हो गई, उनको अपदस्थ करती हुई

    मैं तुमसे एकमेक रही हूँ, तुमको रत्ती-रत्ती जानती हूँ

    क्या मैंने तुम्हारी हथेलियाँ और अँगुलियों के पोर नहीं छुए हैं?

    मैं तुममें आई, तुम्हारे आर-पार गई, एड़ियों के आसपास तक

    और आना-जाना क्या? क्या मैं ही तुम नहीं थी? केवल तुम?

    और इस स्थान में कण भर धूप भी मुझे चैन देने नहीं आती

    गहन तिमिर मुझे चीर रहा है

    और मुझ पर ज्योति अवतरित नहीं होती,

    और तुम भी एक शब्द नहीं कहते, दिन पर दिन बीतते जाते हैं।

    ओह मैं मुक्त हो सकती हूँ, सील मुहर

    और द्वार पर की गई तमाम शिल्पकारी के बावजूद

    हरे काँच से बाहर जा सकती हूँ...

    किंतु यहाँ शांति है

    अतः कौन जाए?

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 40)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : एज़रा पाउंड
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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