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अकेला

akela

अनुवाद : इबोहल सिंह काड़्जम

एलांगबम नीलकांत सिंह

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और अधिकएलांगबम नीलकांत सिंह

    आज के युग में

    जितनी आवाज़ जीप और कारों की

    जितनी उड़ान जेट हवाई-जहाज़ों की

    जितनी ऊँचाई बहुमंज़िली इमारतों की

    जितनी बढ़ती संख्या संगठनों की

    बनता जाता है इंसान उतना ही अकेला।

    नहीं है यह वन का एकाकीपन

    है भीड़ का एकांत।

    आँखें मिलाई जाती हैं

    किंतु दिखाई नहीं देता आपस में।

    मुँह से मुँह बोलता है

    किंतु अर्थ नहीं समझते।

    हाथ में हाथ थाम निर्मित होती है शृंखला

    किंतु संभव नहीं होता एक साथ चलना

    सनातन समाज के बिखर जाने से

    बनता जाता है आज का इंसान

    अलग-थलग एक-एक द्वीप।

    अर्थविहीन होती जाती है प्रेम की मुस्कान

    ढकता जाता है नक़ाब पर नक़ाब

    खोता जाता है सच्चा स्वरूप।

    इंसान इंसान से अपरिचित होता जाता है।

    बनता जाता है इंसान एक अलग-थलग यात्री।

    विकासरूपी बारुनी पर्वत पर चढ़ रहा है इंसान

    ढूँढ़ रहा है खोए हुए हृदय को

    प्राचीन प्रेम को, शांति को

    आनंद की हज़ारों मशालें लेकर।

    किंतु मिल पाएगा नहीं

    क्योंकि चीज़ जो ढूँढ़ रहा है

    वह आंतरिक है, बाह्य नहीं

    पर सोचता है इंसान उसे बाहर ही

    इसलिए ढूँढ़ता है निरंतर

    मानो पीछा कर रहा हो माया-मरीचिका का

    एकाकीपन के इस जगत में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तीर्थ-यात्रा (पृष्ठ 39)
    • रचनाकार : एलाड़्बम नीलकांत सिंह
    • प्रकाशन : हिंदी बुक सेंटर
    • संस्करण : 1996

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