अकाल मृत्यु

akal mirtyu

जगदीश चतुर्वेदी

जगदीश चतुर्वेदी

अकाल मृत्यु

जगदीश चतुर्वेदी

नगर मरते हैं और संस्कृतियाँ दफ़न होती हैं

क़स्बों में उग आते हैं खलिहान

और रेतों में खो जाते हैं नख़लिस्तान!

रोज़ उदासी का एक पृष्ठ और खुल जाता है;

नाख़ूनों के सिरों पर उगते हैं स्वप्न

और होंठों में उगते हैं नागफनी के वृक्ष

सारा का सारा जीवित नगर बदल जाता है

शवगृहों में!

गीदड़ों की आवाज़ें बहुत सहमी-सी आती हैं

गलों में होती है कफ़ की घरघराहट

मौत पंजे बढ़ाती है

और पंजों में से निकलते हैं केंचुए

केंचुओं के पंजों में फँसे रिरियाते हैं लोग

मुँह से चुचाता है ख़ून

और पीप और मवाद!

एक दुर्गंध उठ रही है ज़हरमोहरों के देश में

तमाम लोग क़ैद हैं शवगृहों में

और भूतों की मानिंद डोलते हैं इधर-उधर

हताश!

संस्कृति का कोई कमज़ोर हाथ उठता है

और पीला पड़कर झर जाता है

जीवित मनुष्य के मस्तिष्क में पैदा होते हैं घोंघे

जब बुद्धिहीनता आती है

शरीर सड़ता है

रिसते हैं वीर्य-कोषों के तंतु

और इंसान कुत्ते की मौत मर जाता है!

आह, पागल कुत्तों के देश में भी

इंसान कभी-कभी सोचता है...

सोचता है

अपनी अकाल मृत्यु

और कुकुरमुत्ते-सा

सहम, सिकुड़ जाता है।

देता है आवाज़ एक असहाय बूढ़े गिद्ध-सा

और फिर अनिवार्य नियति का

बोध उसे डसता है

और वह पागल कुत्ते सा

छटपटाकर बदहवास

हड्डियाँ चढ़ाता है—अपने ही पिंजर की—

और सड़क पर पड़े पागल ढूह-सा

ठंडा हो जाता है?

स्रोत :
  • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 50)
  • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 1967

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