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आजकल

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जितेंद्र कुमार

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और अधिकजितेंद्र कुमार

    आजकल

    जब मैं कविता लिखने बैठता हूँ

    तो शब्द गुम हो जाता है

    मैं

    इस ठेके की महिमा से हटने का

    निश्चय कर लेता हूँ

    पर मौजूदा राजनीति

    मेरा हौसला बढ़ाती है

    उत्तेजना और दस्तावेज़ के बिना ही

    मैं पटरी पर

    क्रांति की चीत्कार करता निकल पड़ता हूँ

    एक बार हम उसके घर गए थे

    तब उस जनता को

    जिसमें बुद्धिजीवी भी

    सामान्य की तरह बैठे थे

    उसने पूर्ण सत्ता हथियाने का राज़

    समझाया था

    एक निहायत व्यावसायिक औरत की दुर्दमनीयता से

    उसके उस चेहरे को मैं कभी भूल नहीं सकता

    ना ही

    उसकी दृढ़ता के मसख़रेपन को

    मैं और मेरा दोस्त

    खटकों में गर्दन से फँसे चूहों से

    शांत और ठस बैठे रह गए थे

    हमने उस विक्षिप्त समाजवादी की

    भविष्य भयातुरता पर भी कान नहीं दिया था

    जो वह एक और औरत की

    जाँघों को उकसाने के लिए

    उतनी उत्तेजना से उगल रहा था

    दुनिया

    किस क़दर मूर्ख और मौलिक हो गई है

    दुनिया किस क़दर

    चतुर और चाटुकार हो गई है

    दुनिया

    क़तई वैसी ही घृणित और घुमावदार हो गई है

    जैसी वह

    जीवित रहने के लिए हमेशा से थी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आईने में चेहरा (पृष्ठ 65)
    • रचनाकार : जितेंद्र कुमार
    • प्रकाशन : जयश्री प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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